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#राधे कृष्ण
रोकत चित्त रूकत नहिं प्यारी!
विषय प्रवाह बह्मौ ही जावै,
रोकि-रोकि हठ हारी!
हौं असमर्थ न कछु बन आवै,
लगत नैन अधियारी!!
लीजै खैचि कृपालु कृपा करि,
प्रेम पाश गल डारी!
"भोरी" की अलबेली स्वामिनि,
सब विधि राखन हारी!!
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#राधे कृष्ण
कहा कहौं रूप ऐसौ बनौ है सरोवर कौ ,
तामें सखी बिरजा जू आए कैं विराजी हैं ।
प्रेम कौ सरोवर ये बनौ है कमल ताल ,
मिल कैं सखी सों रजरानी मुसकाई हैं ।।
प्रेम के सरोवर में बैठे पिय प्यारी दोऊ ,
प्रेम की तरंग में लहर लहराई है ।
आए कैं बिराजे गुरूदेव जहां ऐसे मानौं ,
छोड़ कैं गोलोक मणि पारस की आई है ।।
सेवा में लगे हैं गुरूदेव पिय प्यारी जू की ,
माथे पे तिलक रज चंदन सुहाए हैं ।
ओढ़ गुदरी कौं सीस लग रहे ऐसे ,
जैसें श्री गुरूदेव रूप सखी सौ धराए हैं ।।
एक हाथ करूआ जी एक हाथ माला सोहे ,
नैंनन में रस विजिया के झलकाए हैं ।
ऐसे हैं उदार दास राधिका बिहारी जू के ,
चुन चुन जल में कमल महकाए हैं ।।
रस सौ सरोवर ये भरौ ही रहत सदा ,
कृपा गुरूदेव ने सदा ही बरसाई है ।
स्वामी हरिदास जू विराजत सदा ही जहां ,
रूप के अनूप की तौ कहा ही बडा़ईं है ।
मोहिनी बिहारी सौं मनावत *मनोहर* ये ,
टटिया स्थान मोहे सदा ही बुलाइए ।
बृज में ही वास करौ बृज की ही याद करौ ,
रजरानी में ये सीस सदा ही झुकाइए ।।
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#❤️जीवन की सीख
💢"क्रोध में आवेश में आकर दिए गए शाप से कहीं अधिक शक्तिशाली वह 'मौन श्राप' होता है, जिसे कोई व्यक्ति हंस कर पी लेता है और उस पीड़ा को अपने हृदय में दबाकर अपनी आत्म- शक्ति को जागृत करता है।
ऐसे व्यक्ति को सताने की भूल कभी न करें, विशेषकर उसे जो आपकी हर गलती को क्षमा कर देता हो। क्षमादान देकर वह व्यक्ति अपने मानवीय कर्तव्य को पूरा कर कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है, जिसके पश्चात न्याय की डोर सीधे प्रकृति (कुदरत) के हाथों में आ जाती है।💢
🛐कर्म का सिद्धांत अटल है। जब कोई प्राणी किसी की गलती को क्षमा करता है, तो कुदरत पूरी ईमानदारी से उसका हिसाब करती है। ऐसे कर्मों का फल और श्राप पीढ़ियों तक पीछा नहीं छोड़ता और दुनिया की कोई भी शक्ति इसे काट नहीं सकती। इसलिए, किसी का दिल दुखाने से सदैव बचें।"🛐
🙏जय जय श्री महाकाल🙏
#जय श्री कृष्ण #राधे कृष्ण
जब महाभारत समाप्त हुआ अर्जुन भगवान् कृष्ण के साथ द्वारिका गए थे ।और जब वहां से लौट रहे थे तब युधिष्ठिर को जो सब बाते बताई वो आपके हृदय को झकझोर कर रख देगा
भगवान् श्रीकृष्ण के प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्ण के विरह से कृश हो रहे थे, उस पर राजा युधिष्ठिर ने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषय में कई प्रकार की आशंकाएँ करते हुए प्रश्नों की झड़ी लगा दी ॥
शोक से अर्जुन का मुख और हृदय-कमल सूख गया था, मुख मलिन पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण के ध्यान में ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाई प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सके
श्रीकृष्ण की आँखों से ओझल हो जाने के कारण वे बड़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठा के परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहलने आदि के समय भगवान् ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्न-हृदयता और प्रेम से भरे हुए व्यवहार किये थे, उनका स्मरण हो रहा था,बड़े कष्ट से उन्होंने अपने शोक का वेग रोका, हाथ से नेत्रों के आँसू पोंछे और फिर रूँधे गले से महाराज युधिष्ठिर से कहा:
अर्जुन बोले— महाराज! मेरे अत्यन्त घनिष्ठ मित्र का रूप धारणकर श्री कृष्ण ने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रम से बड़े-बड़े देवता भी आश्चर्य में डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्ण ने मुझसे छीन लिया ॥
जैसे यह शरीर प्राण से रहित होने पर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षण भर के वियोग से यह संसार अप्रिय दीखने लगा है ॥
उनके आश्रय से द्रौपदी-स्वयंवर में राजा द्रुपद के महल आये हुए कामोन्मत्त राजाओं का तेज मैंने हरण कर लिया, धनुषपर बाण चढ़ाकर मत्स्य भेद किया और इस प्रकार द्रौपदी को प्राप्त किया था ॥
उनकी सन्निधि मात्र से मैंने समस्त देवताओं के साथ इन्द्र को अपने बल से जीतकर अग्निदेव की तुष्टि के लिये खाण्डव वन का दान कर दिया और मय दानव को निर्माण की हुई, अलौकिक कला कौशल से युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञ में सब ओर से आ-आकर राजाओं ने अनेकों प्रकारकी भेंट समर्पित कीं ॥
दस सहस्त्र हाथियों की शक्ति और बल से सम्पन्न अपने छोटे भाई भीमसेन ने उन्हीं की शक्ति से राजाओं के सिरपर पैर रखनेवाले अभिमानी जरासन्ध का वध किया था तदनन्तर उन्हें भगवान् ने उन बहुत-से राजाओं को मुक्त किया, जिनको जरासन्ध ने महाभैरव-यज्ञ में बलि चढ़ाने के लिये बन्दी बना रखा था। उन सब राजाओं ने आपके यज्ञ में अनेकों प्रकार के उपहार दिये थे ॥
महाव्रती द्रौपदी राजसूय यज्ञ के महान् अभिषेक से पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशों को, जिन्हें दुष्टों ने भरी सभा में छूने का साहस किया था, बिखेर तथा आँखों में आँसू भरकर जब श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमान का बदला लेने की प्रतिज्ञा करके उन धूर्तों की स्त्रियों को ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल देने पड़े ॥
वनवास के समय हमारे वैरी दुर्योधन के षड्यन्त्र से दस हजार शिष्यों को साथ बिठाकर भोजन करने वाले महर्षि दुर्वासा ने हमें दुस्तर संकट में डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदी के पात्र में बची हुई शाक की एक पत्ती का ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की थी। उनके ऐसा करते ही नदी में स्नान करती हुई मुनि-मण्डली को ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो बात ही क्या, सारी त्रिलोकी ही तृप्त हो गयी है
उनके प्रताप से मैंने युद्ध में पार्वती सहित भगवान् शंकर को आश्चर्य में डाल दिया तथा उन्होंने मुझ को अपना पाशुपत नाम अस्त्र दिया साथ ही दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने अस्त्र मुझे दिये। और तो क्या, उनकी कृपा से मैं इसी शरीर से स्वर्ग में गया और देवराज इन्द्र की सभा में उनके बराबर आधे आसनपर बैठनेका सम्मान मैंने प्राप्त किया ॥ ॥
उनके आग्रह से जब मैं स्वर्ग में ही कुछ दिनों तक रह गया, तब इन्द्र के साथ समस्त देवताओं ने मेरी इन्हीं गाण्डीव धारण करने वाली भुजाओं का निवातकवच आदि दैत्यों को मारने के लिये आश्रय लिया। महाराज! यह सब जिनकी महती कृपा का फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे आज ठग लिया? ॥
महाराज! कौरवों की सेना भीष्म-द्रोण आदि अजस्र महामत्य्सों से पूर्ण अपार समुद्र के समान दुस्तर थी, परन्तु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेली ही रथ पर सवार हो मैं उसे पार कर गया। उन्हीं की सहायता से, आपको स्मरण होगा, मैंने शत्रुओं से राजा विराट् का सारा गोधन तो वापस ले ही लिया, साथ ही उनके सिरों पर से चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अँगों के अलंकार तक छीन लिये थे ॥
भाईजी! कौरवों की सेना भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरों के रथों से शोभायमान थी। उसके सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टि से ही उन महारथी यूथपतियों की आयु, मन, उत्साह और बल को छीन लिया करते थे ॥
द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ और बाह्लीक आदि वीरों में से मुझपर कभी न चूकने वाले अस्त्र चलाये थे परन्तु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्यों के अस्त्र-शस्त्र भगवान के प्रह्लाद का स्पर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छू नहीं सके। यह श्रीकृष्ण के भुजदण्डों की छत्रछाया में रहनेका ही प्रभाव था ॥
श्रेष्ठ पुरुष संसार से मुक्त होने के लिये जिनके चरण कमलों का सेवन करते हैं, अपने-अपने आप्तकों को दालने वाले उन भगवान को मुझ दुर्बुद्धि ने अपने साथ बना डाला। अहा! जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथ से उतरकर पृथ्वी पर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझ पर प्रहार न कर सके क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रभाव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी ॥
महाराज! माधव के उन्मुक्त और मधुसूदन के हास परिहास से युक्त, विनो दभरे एवं हृदयस्पर्शी वचन और उनका मुझे 'पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दन' आदि कहकर पुकारना, मुझे स्मरण आने पर मेरे हृदय में उथल-पुथल मचा देते हैं ॥
शयन.आसन.भ्रमण वार्तालाप तथा भोजन आदि करने में मैं प्रायः एक साथ रहा करते थे। किसी-किसी दिन मैं व्यंग्य से उन्हें कह बैठता, 'मित्र! तुम तो बड़े सत्यवादी हो!' उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावता के कारण, जैसे मित्र अपने मित्र का और पिता अपने पुत्र का अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धि के अपराधों को सह लिया करते थे ॥
महाराज! जो मेरे सखा, प्रिय मित्र—नहीं—नहीं मेरे हृदय ही थे, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान से मैं रहित हो गया हूँ।
भगवान के आदेश से द्वारिका की स्त्रियों को द्वारका से अपने साथ ला रहा था, परन्तु मार्ग में दुष्टों ने मुझे एक अबला की भाँति हरा दिया और मैं उनकी रक्षा नहीं कर सका ॥
वही गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथ में अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े राजा लोग सिर झुकाया करते थे। श्रीकृष्ण के बिना वे सब एक ही क्षण में नहीं के समान सारशून्य हो गये—ठीक उसी तरह, जैसे भस्म में डाली हुई आहुति, कपटभरी सेवा और ऊसर में बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है ॥
राजन्! आपके द्वारकावासी अपने जिन सुहृद्-सम्बन्धियों की बात पूछी है, वे ब्राह्मणों के शापवश मोहग्रस्त होकर और वारुणी मदिरा के पान से मदोन्मत्त होकर अपरिचितों की भाँति आपस में ही एक-दूसरे से युद्ध करके सब-के-सब नष्ट हो गये। उनमें से केवल चार-पाँच जन ही बचे हैं ॥
वास्तवमें यह सर्वशक्तिमान् भगवान की ही लीला है कि संसार के प्राणी परस्पर एक-दूसरे का पालन-पोषण भी करते हैं और एक-दूसरे को मार भी डालते हैं ॥
राजन्! जिस प्रकार जलचरों में बड़े-बड़े छोटे को, बलवान् दुर्बलों को एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरे को खा जाते हैं, उसी प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशीयों के द्वारा भगवान् ने दूसरे राजाओं का संहार करवाया। तत्पश्चात् यदुवंशीयों के द्वारा ही एक-दूसरे यदुवंशी का नाश करा के पूर्णरूप से पृथ्वी का भार उतार दिया ॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे जो शिक्षाएँ दी थीं, वे देश, काल और प्रयोजन के अनुरूप तथा हृदय के ताप को शान्त करने वाली थीं स्मरण आते ही वे हमारे चित्त का हरण कर लेती हैं ॥
इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम से भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों का चिन्तन करते-करते अर्जुन की चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी ॥
उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों के अहर्निश चिन्तन से अत्यन्त बढ़ गयी। भक्ति के वेग ने उनके हृदय को मथकर उसमें से सारे विकारों को बाहर निकाल दिया ॥
उन्हें युद्ध के प्रारम्भ में भगवान के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता-ज्ञान पुनः स्मरण आया, जिसकी काल के व्यवधान और कर्मों के विस्तार के कारण प्रमादवश कुछ दिनों के लिये विस्मृति हो गयी थी ॥ ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से माया का आवरण भंग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैतका संशय नष्ट हो गया। सूक्ष्मशरीर भंग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्यु के चक्र से सर्वथा मुक्त हो गये ॥
🔥⚔️🔥जय श्री राम🔥⚔️🔥
#राधे राधे
नन्द के लाल हरयो मन मोर ।
हौं अपने मोतिन लर पोवत
कांकर डारि गयौ सखि भोर ॥
बंक बिलोकनि चाल छबीली
रसिक शिरोमणि नन्दकिशोर ।
कहि कैसे मन रहत श्रवन सुनि
सरस् मधुर मुरली की घोर ॥
इन्दु गोविन्द बदन के कारण
चितवन कौ भये नैन चकोर ।
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#राधे राधे
सबै अंग गुणहीन हूँ,
ताको जतन न कोई,
एक किशोरी कृपा तैं,
जो कुछ होइ सो होइ।
श्री राधे मैं अति दुखियारी ,
कहाँ जाऊँ किस्मत कि मारी,
कर्म हीन कछु आवत नाहीं,
कित जाऊँ मेरा कोई नाहीं,
मैं अति दीन हीन श्री राधे,
दीनन कि सुन लीजे राधे,
मोह पे कृपा दृष्टि कीजे,
श्यामा मोरी विनय मान लीजै ॥
मेरी विनय मान लीजे,
श्यामा विनय मान लीजे,
मोहे अपनी कर लीजे,
मोहे श्री चरणों में रख लीजै ॥
जय जय श्रीराधे राधे....
...
#श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०६३
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्ड
अट्ठावनवाँ सर्ग
वसिष्ठ ऋषिके पुत्रोंका त्रिशंकुको डाँट बताकर घर लौटनेके लिये आज्ञा देना तथा उन्हें दूसरा पुरोहित बनानेके लिये उद्यत देख शाप-प्रदान और उनके शापसे चाण्डाल हुए त्रिशंकुका विश्वामित्रजीकी शरणमें जाना
रघुनन्दन! राजा त्रिशंकुका यह वचन सुनकर वसिष्ठ मुनिके वे सौ पुत्र कुपित हो उनसे इस प्रकार बोले—'दुर्बुद्धे! तुम्हारे सत्यवादी गुरुने जब तुम्हें मना कर दिया है, तब तुमने उनका उल्लङ्घन करके दूसरी शाखाका आश्रय कैसे लिया?॥१-२॥
'समस्त इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियोंके लिये पुरोहित वसिष्ठजी ही परमगति हैं। उन सत्यवादी महात्माकी बातको कोई अन्यथा नहीं कर सकता॥३॥
'जिस यज्ञकर्मको उन भगवान् वसिष्ठमुनिने असम्भव बताया है, उसे हमलोग कैसे कर सकते हैं॥४॥
'नरश्रेष्ठ! तुम अभी नादान हो, अपने नगरको लौट जाओ। पृथ्वीनाथ! भगवान् वसिष्ठ तीनों लोकोंका यज्ञ कराने में समर्थ हैं, हमलोग उनका अपमान कैसे कर सकेंगे'॥५½॥
गुरुपुत्रोंका वह क्रोधयुक्त वचन सुनकर राजा त्रिशंकुने पुनः उनसे इस प्रकार कहा—'तपोधनो! भगवान् वसिष्ठने तो मुझे ठुकरा ही दिया था, आप गुरुपुत्रगण भी मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार कर रहे हैं; अतः आपका कल्याण हो, अब मैं दूसरे किसीकी शरणमें जाऊँगा'॥६-७½॥
त्रिशंकुका यह घोर अभिसंधिपूर्ण वचन सुनकर महर्षिके पुत्रोंने अत्यन्त कुपित हो उन्हें शाप दे दिया—'अरे! जा तू चाण्डाल हो जायगा।' ऐसा कहकर वे महात्मा अपने-अपने आश्रममें प्रविष्ट हो गये॥८-९॥
तदनन्तर रात व्यतीत होते ही राजा त्रिशंकु चाण्डाल हो गये। उनके शरीरका रंग नीला हो गया। कपड़े भी नीले हो गये। प्रत्येक अंगमें रुक्षता आ गयी। सिरके बाल छोटे-छोटे हो गये। सारे शरीरमें चिताकी राख-सी लिपट गयी। विभिन्न अंगोंमें यथास्थान लोहेके गहने पड़ गये॥१०½॥
श्रीराम! अपने राजाको चाण्डालके रूपमें देखकर सब मन्त्री और पुरवासी जो उनके साथ आये थे, उन्हें छोड़कर भाग गये। ककुत्स्थनन्दन! वे धीरस्वभाव नरेश दिन-रात चिन्ताकी आगमें जलने लगे और अकेले ही तपोधन विश्वामित्रकी शरणमें गये॥११-१२½॥
श्रीराम! विश्वामित्रने देखा राजाका जीवन निष्फल हो गया है। उन्हें चाण्डालके रूपमें देखकर उन महातेजस्वी परम धर्मात्मा मुनिके हृदयमें करुणा भर आयी। वे दयासे द्रवित होकर भयंकर दिखायी देनेवाले राजा त्रिशंकुसे इस प्रकार बोले—'महाबली राजकुमार! तुम्हारा भला हो, यहाँ किस कामसे तुम्हारा आना हुआ है। वीर अयोध्यानरेश! जान पड़ता है तुम शापसे चाण्डालभावको प्राप्त हुए हो'॥१३-१५½॥
विश्वामित्रकी बात सुनकर चाण्डालभावको प्राप्त हुए और वाणीके तात्पर्यको समझनेवाले राजा त्रिशंकुने हाथ जोड़कर वाक्यार्थकोविद विश्वामित्र मुनिसे इस प्रकार कहा—॥१६½॥
'महर्षे! मुझे गुरु तथा गुरुपुत्रोंने ठुकरा दिया। मैं जिस मनोऽभीष्ट वस्तुको पाना चाहता था, उसे न पाकर इच्छाके विपरीत अनर्थका भागी हो गया॥१७½॥
'सौम्यदर्शन मुनीश्वर! मैं चाहता था कि इसी शरीरसे स्वर्गको जाऊँ, परंतु यह इच्छा पूर्ण न हो सकी। मैंने सैकड़ों यज्ञ किये हैं; किंतु उनका भी कोई फल नहीं मिल रहा है॥१८½॥
'सौम्य! मैं क्षत्रियधर्मकी शपथ खाकर आपसे कहता हूँ कि बड़े-से-बड़े सङ्कटमें पड़नेपर भी न तो पहले कभी मैंने मिथ्या भाषण किया है और न भविष्यमें ही कभी करूँगा॥१९½॥
'मैंने नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान किया, प्रजाजनोंकी धर्मपूर्वक रक्षा की और शील एवं सदाचारके द्वारा महात्माओं तथा गुरुजनोंको संतुष्ट रखनेका प्रयास किया। इस समय भी मैं यज्ञ करना चाहता था; अतः मेरा यह प्रयत्न धर्मके लिये ही था। मुनिप्रवर ! तो भी मेरे गुरुजन मुझपर संतुष्ट न हो सके। यह देखकर मैं दैवको ही बड़ा मानता हूँ। पुरुषार्थ तो निरर्थक जान पड़ता है॥२०-२२॥
'दैव सबपर आक्रमण करता है। दैव ही सबकी परमगति है। मुने! मैं अत्यन्त आर्त होकर आपकी कृपा चाहता हूँ। दैवने मेरे पुरुषार्थको दबा दिया है। आपका भला हो। आप मुझपर अवश्य कृपा करें॥२३॥
'अब मैं आपके सिवा दूसरे किसीकी शरणमें नहीं जाऊँगा। दूसरा कोई मुझे शरण देनेवाला है भी नहीं। आप ही अपने पुरुषार्थसे मेरे दुर्दैवको पलट सकते हैं'॥२४॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५८॥*
###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
#श्रीमहाभारतकथा-2️⃣4️⃣8️⃣
श्रीमहाभारतम्
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।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।
(सम्भवपर्व)
षट्सप्ततितमोऽध्यायः
कचका शिष्यभाव से शुक्राचार्य और देवयानी की सेवा में संलग्न होना और अनेक कष्ट सहने के पश्चात् मृतसंजीवनी
विद्या प्राप्त करना...(दिन 248)
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कच उवाच
स्मरामि सर्वं यच्च यथा च वृत्तम् । न त्वेवं स्यात् तपसः संक्षयो मे ततः क्लेशं घोरमिमं सहामि ।। ५४ ।।
कचने कहा- गुरुदेव ! आपके प्रसादसे मेरी स्मरणशक्तिने साथ नहीं छोड़ा है। जो बात जैसे हुई है, वह सब मुझे याद है। इस प्रकार पेट फाड़कर निकल आनेसे मेरी तपस्याका नाश होगा। वह न हो, इसीलिये मैं यहाँ घोर क्लेश सहन करता हूँ ।। ५४ ।।
असुरैः सुरायां भवतोऽस्मि दत्तो हत्वा दग्ध्वा चूर्णयित्वा च काव्य । ब्राह्मीं मायां चासुरीं विप्र मायां त्वयि स्थिते कथमेवातिवर्तेत् ।। ५५ ।।
आचार्यपाद! असुरोंने मुझे मारकर मेरे शरीरको जलाया और चूर्ण बना दिया। फिर उसे मदिरामें मिलाकर आपको पिला दिया! विप्रवर! आप ब्राह्मी, आसुरी और दैवी तीनों प्रकारकी मायाओंको जानते हैं। आपके होते हुए कोई इन मायाओंका उल्लंघन कैसे कर सकता है? ।। ५५ ।।
शुक्र उवाच
किं ते प्रियं करवाण्यद्य वत्से वधेन मे जीवितं स्यात् कचस्य । नान्यत्र कुक्षेर्मम भेदनेन दृश्येत् कचो मद्गतो देवयानि ।। ५६ ।।
शुक्राचार्य बोले-बेटी देवयानी! अब तुम्हारे लिये कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? मेरे वधसे ही कचका जीवित होना सम्भव है। मेरे उदरको विदीर्ण करनेके सिवा और कोई ऐसा उपाय नहीं है, जिससे मेरे शरीरमें बैठा हुआ कच बाहर दिखायी दे ।। ५६ ।।
देवयान्युवाच
द्वौ मां शोकावग्निकल्पौ दहेतां कचस्य नाशस्तव चैवोपघातः ।
कचस्य नाशे मम नास्ति शर्म
तवोपघाते जीवितुं नास्मि शक्ता ।। ५७ ।।
देवयानीने कहा-पिताजी ! कचका नाश और आपका वथ-ये दोनों ही शोक अग्निके समान मुझे जला देंगे। कचके नष्ट होनेपर मुझे शान्ति नहीं मिलेगी और आपका वध हो जानेपर मैं जीवित नहीं रह सकूँगी ।। ५७ ।।
शुक्र उवाच
संसिद्धरूपोऽसि बृहस्पतेः सुत यत् त्वां भक्तं भजते देवयानी । विद्यामिमां प्राप्नुहि जीविनीं त्वं न चेदिन्द्रः कचरूपी त्वमद्य ।। ५८ ।।
शुक्राचार्य बोले- बृहस्पतिके पुत्र कच! अब तुम सिद्ध हो गये, क्योंकि तुम देवयानीके भक्त हो और वह तुम्हें चाहती है। यदि कचके रूपमें तुम इन्द्र नहीं हो, तो मुझसे मृतसंजीवनी विद्या ग्रहण करो ।। ५८ ।।
न निवर्तेत् पुनर्जीवन् कश्चिदन्यो ममोदरात् ।
ब्राह्मणं वर्जयित्वैकं तस्माद् विद्यामवाप्नुहि ।। ५९ ।।
केवल एक ब्राह्मणको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो मेरे पेटसे पुनः जीवित निकल सके। इसलिये तुम विद्या ग्रहण करो ।। ५९ ।।
पुत्रो भूत्वा भावय भावितो मा-
मस्मद्देहादुपनिष्क्रम्य तात । समीक्षेथा धर्मवतीमवेक्षां गुरोः सकाशात् प्राप्य विद्यां सविद्यः ।। ६० ।।
तात ! मेरे इस शरीरसे जीवित निकलकर मेरे लिये पुत्रके तुल्य हो मुझे पुनः जिला देना। मुझ गुरुसे विद्या प्राप्त करके विद्वान् हो जानेपर भी मेरे प्रति धर्मयुक्त दृष्टिसे ही देखना ।। ६० ।।
वैशम्पायन उवाच
गुरोः सकाशात् समवाप्य विद्यां भित्त्वा कुक्षिं निर्विचक्राम विप्रः । कचोऽभिरूपस्तत्क्षणाद् ब्राह्मणस्य
शुक्लात्यये पौर्णमास्यामिवेन्दुः ।। ६१ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! गुरुसे संजीवनी विद्या प्राप्त करके सुन्दर रूपवाले विप्रवर कच तत्काल ही महर्षि शुक्राचार्यका पेट फाड़कर ठीक उसी तरह बाहर निकल आये, जैसे दिन बीतनेपर पूर्णिमाकी संध्याको चन्द्रमा प्रकट हो जाते हैं ।। ६१ ।।
क्रमशः...
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#महाभारत
#जय श्री कृष्ण
यशोदाजी शिवजी के पास आई है औए कहने लगी -महाराज -अगर भिक्षा कम लगती हो मै आपको कम्बल और कमंडल दू।
आप हठ मत कीजिये। आप जो मांगो,वह मै देने को तैयार हूँ पर मै अपने लाला को बाहर नहीं लाऊँगी। वह अभी बालक है,आपके गले में सर्प है।
आपको देखकर वह डर जायेगा।
शिवजी बोले -माँ,तेरा कन्हैया तो “काल का काल- ब्रह्म को ब्रह्म-शिव को धन और संत को सर्वस्व" है।
वह न तो किसी से डर सकता है और न उसे किसी की कुदृष्टि लग सकती है। वह तो मुझे पहचानता भी है।
यशोदाजी- यह आप क्या बोल रहे हो? मै आपको अब तक पहचान न सकी तो मेरा कन्हैया तो
अभी तीन दिन का है। आपको कैसा पहचान सकता है?
शिवजी ने कहा - माँ,बहुत दूर से लाला के दर्शन की आशा से आया हूँ।उसके दर्शन किये बिना मै पानी भी नहीं पियूँगा। मै बारह साल तक यहाँ बैठा रहूँगा पर दर्शन किए बिना नहीं जाऊँगा।
श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए मै साधु बना हूँ।
यशोदाजी ने वंदन कर कहा -आप हठ करो यह ठीक नहीं है। मै लाला को बाहर नहीं लाऊँगी।
बालकृष्ण के दर्शन की आशा से शिवजी एक पेड़ के नीचे जाकर बैठे है।
प्रेम अन्योन्य होता है। जिस तरह भक्त भगवान के दर्शन के लिए आतुर होते है।
भगवान भी भक्त के दर्शन के लिए आतुर होते है.
इस तरफ बाल कन्हैया को पता चला कि शिवजी आये है और माँ मुझे बाहर नहीं निकालती। वे जोरों से रोने लगे। रोते -रोते वे हाथ ऊँचे करके बताते है कि मुझे बाहर जाना है। फिर भी माँ बहार नहीं ले जाती।
गोपियाँ दौड़ती हुई आती है। तीन-चार दिन से कन्हैया बिलकुल रोया नहीं है,पर आज उसे क्या हो गया?
एक गोपी बोली-माँ, उस साधु के होंठ हिल रहे है। मानो-या न मानो उसी ने कुछ मन्त्र प्रयोग किया है
जिससे लाला रो रहा है। ऐसा साधु कभी देखा नहीं है।
दूसरी गोपी बोली-शायद शंकर भगवान तो लाला को आशीर्वाद देने नहीं आये है?
माँ मै लाला को उनके पास ले जाऊँगी तो वे उन्हें आशीर्वाद देंगे। यशोदाजी फिर भी नहीं मानती।
अन्त में शांडिल्य ऋषि को बुलाया और सब बात बताई।
शांडिल्य ऋषि पूरी बात समझ गए और कहा - पेड़ के नीचे जो साधु बैठे है उनके लिए कन्हैया रो रहा है।
वह साधु और कन्हैया का जन्मोजन्म से सम्बन्ध है। आँगन में साधु भूखे बैठे रहे वह ठीक नहीं है।
उनको कन्हैया के दर्शन कराओ।
बालकृष्ण को श्रृंगार किया है। यशोदाजी फिर भी घबराती है। उन्होंने दासी से कहा -साधु महाराज से कहना -
लाला को देखना किन्तु टिक-टिक कर मत देखना। उसे शायद नज़र न लग जाए।
शिवजी महाराज आँगन में आये है और अंत में उनकी जीत हुई है। यशोदाजी आँगन में आये है।
(कल्पना करो) सभी की हाजरी में कन्हैया का रोना बंद हुआ। शिवजी और कन्हैया की आँखे मिली है।
"हरि(विष्णु -या-नारायण) और हर (महादेव-या-रूद्र) दोनों के गाल में स्मित हुआ है।
लालाजीके दर्शन होते ही शिवजी को समाधि लगी है।
शिवजी के दर्शन होते ही कन्हैया को आनन्द हुआ है। वह हँसने लगा। यशोदाजी सोचती है कि घर में तो कन्हैया खूब रो रहा था और साधु की नजर पड़ते ही हँसने लगा। जरूर यह साधारण साधु नहीं है। परमानन्द हुआ है। शिवजी लालाजी के और लालाजी शिवजी के दर्शन करते है।
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बत्तीस प्रकारके सेवापराध माने गये हैं—
१-सवारीपर चढक़र अथवा पैरोंमें खड़ाऊँ पहनकर श्रीभगवान्के मन्दिरमें जाना। २-रथयात्रा, जन्माष्टमी आदि उत्सवोंका न करना या उनके दर्शन न करना।
३-श्रीमूर्तिके दर्शन करके प्रणाम न करना।
४-अशुचि-अवस्थामें दर्शन करना।
५-एक हाथ से प्रणाम करना।
६-परिक्रमा करते समय भगवान् के सामने आकर कुछ न रुककर फिर परिक्रमा करना अथवा केवल सामने ही परिक्रमा करते रहना।
७-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने पैर पसारकर बैठना।
८-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने दोनों घुटनों को ऊँचा करके उनको हाथोंसे लपेटकर बैठ जाना।
९-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने सोना।
१०-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने भोजन करना।
११-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने झूठ बोलना।
१२-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने जोर से बोलना।
१३-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने आपस में बातचीत करना।
१४-श्रीभगवान् के श्रीविग्रहके सामने चिल्लाना।
१५-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने कलह करना।
१६-श्रीभगवान् के श्रीविग्रहके सामने किसी को पीड़ा देना।
१७-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने किसीपर अनुग्रह करना।
१८-श्रीभगवान् के श्रीविग्रहके सामने किसीको निष्ठुर वचन बोलना।
१९-श्रीभगवान् के श्रीविग्रहके सामने कम्बल से सारा शरीर ढक लेना।
२०-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने दूसरेकी निन्दा करना।
२१-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने दूसरे की स्तुति करना।
२२-श्रीभगवान् के श्रीविग्रह के सामने अश्लील शब्द बोलना।
२३-श्रीभगवान् के श्रीविग्रहके सामने अधोवायु का त्याग करना।
२४-शक्ति रहते हुए भी गौण अर्थात् सामान्य उपचारोंसे भगवान् की सेवा-पूजा करना। २५-श्रीभगवान् को निवेदित किये बिना किसी भी वस्तु का खाना-पीना।
२६-जिस ऋतु में जो फल हो, उसे सबसे पहले श्रीभगवान् को न चढ़ाना।
२७-किसी शाक या फलादिके अगले भाग को तोडक़र भगवान् के व्यञ्जनादि के लिये देना। २८-श्रीभगवान् के श्रीविग्रहको पीठ देकर बैठना।
२९-श्रीभगवान् के श्रीविग्रहके सामने दूसरे किसीको भी प्रणाम करना।
३०-गुरुदेव की अभ्यर्थना, कुशल-प्रश्न और उनका स्तवन न करना।
३१-अपने मुखसे अपनी प्रशंसा करना।
३२-किसी भी देवताकी निन्दा करना।
☘️संकलित













