#कामदेव भारतीय दर्शन में काम-शक्ति के देवता हैं। वे कोई अवतार नहीं बल्कि ब्रह्मा के मानस पुत्र माने गए हैं। उनका सार केवल देह-आनंद नहीं बल्कि संपूर्ण सृष्टि की प्रजनन-शक्ति, आकर्षण, रचनात्मकता और प्रेरणा का स्रोत है। शास्त्रों में कहा गया है कि काम ही वह सूक्ष्म अग्नि है जिससे चैतन्य में स्पंदन होता है और जीवन निरंतर चलायमान रहता है।
कामदेव का वाहन तोता है क्योंकि तोता वाणी, माधुर्य, प्रेम और कामना का प्रतीक है। तोता कामभावना को प्रकट करता नहीं, बल्कि संकेतों में छुपा कर ले जाता है। कामदेव का धनुष गन्ने का है क्योंकि गन्ना रस का प्रतीक है और मानव-जीवन में काम रस-प्रधान है। यह रस कठोर नहीं, बल्कि कोमल, मीठा, आकर्षक और बांध लेने वाला है। पुष्प-बाण इसलिए कि काम की शक्ति हिंसा से नहीं, सुगंध, सौंदर्य और आकर्षण से मन पर विजय प्राप्त करती है। पुष्प का बाण मन को घायल करता है पर रक्त नहीं बहाता, इसलिए इसे "मानसिक विजय" कहा गया।
कामदेव की साधना वह करता है जो आकर्षण, दांपत्य-सुख, दैहिक-ऊर्जा, सौंदर्य, प्रेम-संबंधों की स्थिरता और मनोवैज्ञानिक चुंबकत्व को जागृत करना चाहता है। कुछ तांत्रिक इसके माध्यम से “काम-शक्ति को ओज में” परिवर्तित करने की साधना करते हैं। इस साधना का गुप्त स्वरूप हमेशा सदाचार और संयम के साथ किया गया है।
ज्योतिष में कामदेव की ऊर्जा शुक्र में स्थित है। व्यक्ति की कुंडली में शुक्र की स्थिति, राशि, नवांश और सप्तम भाव प्रेम, आकर्षण, काम-ऊर्जा, दांपत्य-जीवन और सौंदर्य की दिशा तय करते हैं। कमजोर शुक्र व्यक्ति में आकर्षण-हीनता, संबंध-अस्थिरता, या दाम्पत्य-कठिनाई लाता है, जबकि प्रबल शुक्र व्यक्ति को चुंबकत्व, कला, प्रेम और काम-शक्ति प्रदान करता है।
मानव जीवन में कामदेव किसी विकृति के देवता नहीं बल्कि सृष्टि के रचनात्मक स्पंदन हैं। उनका विज्ञान यह बताता है कि प्रेम, आनंद और आकर्षण मनुष्य के आध्यात्मिक और मानसिक विकास के मूल तत्व हैं।
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🙋🏻♂ क्या आपको याद है विवाह के ये सात वचन..?
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हिन्दू धर्म में विवाह के समय वर-वधू द्वारा सात वचन लिए जाते हैं. इसके बाद ही विवाह संस्कार पूर्ण होता है। विवाह के बाद कन्या वर से पहला वचन लेती है कि-
पहला वचन इस प्रकार है -
"तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञ दानं मया सह त्वं यदि कान्तकुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी॥"
अर्थ - इस श्लोक के अनुसार कन्या कहती है कि स्वामि तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान आदि सभी शुभ कर्म तुम मेरे साथ ही करोगे, तभी मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूँ, अर्थात् तुम्हारी पत्नी बन सकती हूं। वाम अंग पत्नी का स्थान होता है।
दूसरा वचन इस प्रकार है-
"हव्यप्रदानैरमरान् पितृश्चं कव्यं प्रदानैर्यदि पूजयेथा:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं द्वितीयकम्॥"
अर्थ - इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम हव्य देकर देवताओं को और कव्य देकर पितरों की पूजा करोगे, तब ही मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूँ।
तीसरा वचन इस प्रकार है-
"कुटुम्बरक्षाभरंणं यदि त्वं कुर्या: पशूनां परिपालनं च।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं तृतीयम्॥"
अर्थ - इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम मेरी तथा परिवार की रक्षा करो तथा घर के पालतू पशुओं का पालन करो, तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूँ।
चौथा वचन इस प्रकार है -
"आयं व्ययं धान्यधनादिकानां पृष्टवा निवेशं प्रगृहं निदध्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं चतुर्थकम्॥
अर्थ - चौथे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम धन-धान्य आदि का आय-व्यय मेरी सहमति से करो तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हैं अर्थात् पत्नी बन सकती हूँ।
पांचवां वचन इस प्रकार है -
देवालयारामतडागकूपं वापी विदध्या:यदि पूजयेथा:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं पंचमम्॥
अर्थ - पांचवे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम यथा शक्ति देवालय, बाग, कूआं, तालाब, बावड़ी बनवाकर पूजा करोगे, तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं अर्थात् पत्नी बन सकती हूँ।
छठा वचन इस प्रकार है -
"देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा यदा विदध्या:क्रयविक्रये त्वम्।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं षष्ठम्॥
अर्थ - इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम अपने नगर में या विदेश में या कहीं भी जाकर व्यापार या नौकरी करोगे, और घर-परिवार का पालन-पोषण करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूँ।
सातवां वचन इस प्रकार है -
"न सेवनीया परिकी यजाया त्वया भवेभाविनि कामनीश्च।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं सप्तम्॥"
अर्थ - इस श्लोक के अनुसार सातवां और अंतिम वचन यह है कि कन्या वर से कहती है यदि तुम जीवन में कभी पराई स्त्री को स्पर्श नहीं करोगे तो, मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूँ।
शास्त्रों के अनुसार पत्नी का स्थान पति के वाम अंग की ओर यानी बाएं हाथ की ओर रहता है. विवाह से पूर्व कन्या को पति के सीधे हाथ यानी दाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है, और विवाह के बाद जब कन्या वर की पत्नी बन जाती है जब वह बाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है।
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⁉️रावण और श्रीराम की आयु कितनी थी?⁉️
📕रामायण के सन्दर्भ में जो सबसे अधिक पूछे जाने वाले प्रश्नों में से एक है वो है कि मृत्यु के
समय रावण की आयु कितनी थी ?⁉️
🌷इसको समझने के लिए हमें बहुत पीछे जाना होगा क्योंकि समय की जिस गणना की बात
हम कर रहे हैं उसे आज का विज्ञान नही समझ सकता।
पहली बात तो ये कि जब कोई कहता है कि रामायण १४००० वर्ष पहले की कथा है तो ये याद रखिये कि ये वैज्ञानिकों ने आधुनिक गणना के अनुसार माना है। अगर वैदिक गणना की बात करें तो रामायण का काल खंड बहुत पहले का है। पहले तो इस बात को जान लीजिए कि रावण कि वास्तविक आयु के बारे में किसी भी ग्रंथ में कोई वर्णन नही दिया गया है। मैंने ऐसी कई जानकारियाँ देखी है जहाँ किसी
ने कहा है कि रावण तो २० लाख वर्ष का था, किसी ने कहा वो ८० लाख वर्ष का था या कुछ और।
एक बात समझ लें कि अगर कोई रावण की वास्तविक आयु बता रहा है तो वो झूठ बोल रहा है।
रामायण में ना रावण की आयु और ना ही श्रीराम की आयु के बारे में कुछ कहा गया है। लेकिन इन दोनों के शासनकाल के विषय मे जानकारी दी गयी है जिससे हम इनकी आयु का केवल अनुमान लगा सकते हैं।🌷
🛐पर इससे पहले कि हम उनकी आयु के विषय मे जाने, बस सरसरी तौर पर पौराणिक काल गणना समझ लेते हैं। संक्षेप में, त्रेतायुग ३६०० दिव्य वर्षों का था।
एक दिव्य वर्ष ३६० मानव वर्षो के बराबर होता है। इस हिसाब से त्रेतायुग का कुल काल हमारे समय के हिसाब से २६०० × ३६० = १२९६०००(बारह लाख
छियानवे हजार) मानव वर्षों का था। इस गणना को याद रखियेगा ताकि आगे की बात समझ सकें।
रावण त्रेतायुग के अंतिम चरण के आरम्भ में पैदा हुआ था और श्रीराम अंतिम चरण के अंत मे।
त्रेता युग मे कुल तीन चरण थे।
रामायण में ये वर्णन है कि रावण ने अपने भाइयों (कुम्भकर्ण एवं विभीषण) के साथ ११००० वर्षों तक ब्रह्माजी की तपस्या की थी।
इसके पश्चात रावण और कुबेर
का संघर्ष भी बहुत काल तक चला। इसके अतिरिक्त रावण के शासनकाल के विषय मे कहा गया है कि रावण ने कुल ७२ चौकड़ी तक लंका पर शासन किया। एक चौकड़ी में कुल ४०० वर्ष होते हैं।
तो इस हिसाब से रावण ने कुल
७२ × ४०० = २८८०० वर्षों तक लंका पर शासन किया। इसके अतिरिक्त रामायण में ये वर्णित है कि जब रावण महादेव से उलझा और महादेव ने उसके हाथ
कैलाश के नीचे दबा दिए तब रावण १००० वर्षों तक उनसे क्षमा याचना (उनकी तपस्या) करता रहा और उसी समय उसने शिवस्त्रोत्रतांडव की रचना की।
हालांकि ऐसा उसके लंका शासन काल में ही हुआ। इसीलिए इसे मैं अलग से नही जोड़ रहा हूँ। तो रावण के शासनकाल और तपस्या के वर्ष मिला दें तो ११००० + २८८०० = ३९८०० वर्ष तो कहीं नही गए। तो इस आधार पर हम ये कह सकते हैं कि रावण की आयु कम से कम ४०००० वर्ष तो थी ही,उससे भी अधिक हो सकती है। अर्थात वो करीब ११२ दिव्य वर्षों तक जीवित रहा।🛐
🕉️श्रीराम और माता सीता के विषय मे वाल्मीकि रामायण मे कहा गया है कि देवी सीता श्रीराम
से ७ वर्ष छोटी थी। श्रीराम विवाह के समय २५ वर्षों के थे तो इस
हिसाब से माता सीता की आयु उस समय १८ वर्षों की थी। विवाह के पश्चात १२ वर्षों तक वे दोनों अयोध्या में रहे उसके बाद उन्हें वनवास हुआ। इस हिसाब से वनवास के समय श्रीराम ३७ और
माता सीता ३० वर्ष की थी।
तत्पश्चात १४ वर्षों तक वे वन में रहे और वनवास के अंतिम मास में श्रीराम ने रावण का वध किया।
अर्थात ५१ वर्ष की आयु में श्रीराम ने ४०००० वर्ष के रावण का वध किया। तत्पश्चात श्रीराम ने ११००० वर्षों तक अयोध्या पर
राज्य किया। तो उनकी आयु भी हम तकरीबन १११०० वर्ष अर्थात
लगभग ३० दिव्य वर्ष के आस पास मान सकते हैं।🕉️
🚩इस गणना के हिसाब से रावण के अतिरिक्त कुम्भकर्ण,मेघनाद, मंदोदरी इत्यादि की आयु भी बहुत होगी। विभीषण तो चिरंजीवी हैं तो आज भी जीवित होंगे।🚩
🧘जाम्बवन्त तो सतयुग के व्यक्ति थे जो द्वापर के अंत तक जीवित रहे,तो उनकी आयु का केवल अनुमान ही लगा सकते हैं।
महावीर हनुमान रावण से आयु में छोटे और श्रीराम से आयु में बहुत बड़े थे। वे भी चिरंजीवी हैं तो आज भी जीवित होंगे। भगवान परशुराम भी रावण से आयु में थोड़े छोटे और हनुमान से बड़े थे और वे भी चिरंजीवी हैं। कर्त्यवीर्य अर्जुन आयु में रावण से भी बड़े थे किंतु परशुराम ने अपनी युवावस्था में ही उनका वध कर दिया था।
इन सब के इतर रामायण के उत्तर कांड में कुछ ऐसी चीजें वर्णित है, जिसके अनुसार हमें रावण और श्रीराम की आयु के विषय में कुछ और प्रमाण मिलते हैं।🧘
🙏किन्तु सत्य ये है कि मूल रामायण में उत्तर कांड था ही नहीं। गरुड़ और काकभुशुण्डि में हुए संवाद को उत्तर रामायण कहा गया है। बाद में इसे ही उत्तर कांड के नाम से रामायण में जोड़ा गया।
किन्तु हम ये जानते हैं कि निकट अतीत में उत्तर कांड में किस तरह से मिलावट की गयी है,इसीलिए
इसकी प्रमाणिकता के विषय में संदेह है।🙏
🍀किन्तु फिर भी,आइये कुछ चीजें देखते हैं:पंचवटी में हुए माता सीता और रावण के संवाद से
भी हमें श्रीराम की आयु का एक अनुमान मिलता है। जब रावण माता सीता का अपहरण करने आता है तो उस समय माता सीता उससे कहती है कि श्रीराम को वनवास २५ वर्ष की आयु में मिला था और वो उस समय १८ वर्ष की आयु की थी। अर्थात विवाह के लगभग तुरंत बाद ही श्रीराम को
वनवास मिल गया था। इस अनुसार रावण के वध के समय श्रीराम ३९ वर्ष के थे। जब महर्षि विश्वामित्र श्रीराम को लेने अयोध्या आते हैं तब महाराज दशरथ कहते हैं - "मेरे ६०००० वर्षों के जीवन काल में राम से बिछड़ना मेरे लिए सबसे दुखद है।"रामायण के कई संस्करणों के अनुसार भूतकाल
में दशरथ और रावण का युद्ध हुआ था। इस हिसाब से रावण की आयु और भी अधिक हो जाती है।
रावण के ६ श्रापों में से एक उसे महाराज अनरण्य से मिला था जो श्रीराम के पूर्वज थे। वे श्रीराम से ३६ पीढ़ी पहले जन्में थे। इस अनुसार रावण की आयु और भी अधिक हो जाती है। इन सबसे इतर,स्कन्द पुराण में कुछ ऐसा लिखा है जिसके अनुसार रावण किसी और चतुर्युग का व्यक्ति
बन जाता है।🍀
📕स्कन्द पुराण के अनुसार रावण ने कुल ५६००००००
(पांच करोड़ साठ हजार) वर्ष शासन किया था। इस हिसाब से आप रावण की आयु का केवल
अनुमान ही लगा सकते हैं। कुछ लोग ये सोच रहे होंगे कि किसी व्यक्ति की आयु इतनी अधिक कैसे हो सकती है। किंतु हमारे पुराणों में चारो युग के मनुष्यों की
औसत आयु और कद का वर्णन है और ये सभी मनुष्यों के लिए है, ना कि केवल रावण और श्रीराम जैसे विशिष्ट लोगों के लिए।
हालांकि रावण जैसे तपस्वी और श्रीराम जैसे अवतारी पुरुष की आयु वर्णित आयु से अधिक
होने का विवरण है। जैसे जैसे युग अपने अंतिम चरम में पहुंचता है,
वैसे वैसे ही मनुष्यों की आयु और ऊंचाई घटती जाती है। अर्थात सतयुग के अंतिम चरण में जन्में लोगों की आयु और ऊंचाई सतयुग के ही प्रथम चरण
में जन्में लोगों से कम होगी।📕
✍️आइये इसपर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं:
सतयुग: आयु - १००००० वर्ष, ऊंचाई - २१ हाथ
त्रेतायुग: आयु - १०००० वर्ष, ऊंचाई - १४ हाथ
द्वापरयुग: आयु - १००० वर्ष, ऊंचाई - ७ हाथ
कलियुग: आयु - १०० वर्ष, ऊंचाई - ४ हाथ✍️
‼️महाभारत में वर्णित है कि रेवती के पिता कुकुद्भि,जो सतयुग से थे,अपनी पुत्री रेवती के विवाह के लिए ब्रह्माजी से मिलने आये।
किन्तु के कुछ क्षण ही वहाँ रहे जिससे पृथ्वी पर ३ युग बीत गए।
तब ब्रह्मदेव ने उन्हें जल्दी पृथ्वी पर जाने को कहा और बताया कि बलराम उनकी पुत्री के लिए सर्वथा योग्य हैं। उनके आदेश पर वे अपनी पुत्री का विवाह करवाने
द्वापर आये। किन्तु सतयुग की होने के कारण रेवती बलराम से
३ गुणा अधिक ऊंची थी। तब बलराम ने अपने हल के दवाब से रेवती की ऊंचाई स्वयं जितनी कर ली।‼️
हर हर महादेव💐
जयश्रीराम💐
#जय श्री राम
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भगवान् के दर्शन प्रत्यक्ष हो सकते हैं
बहुत-से सज्जन मन में शंका उत्पन्न कर इस प्रकार के प्रश्न करते हैं कि दो प्यारे मित्र जैसे आपस में मिलते हैं क्या इसी प्रकार इस कलिकाल में भी भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन मिल सकते हैं ? यदि सम्भव है तो ऐसा कौन-सा उपाय है कि जिससे हम उस मनोमोहिनी मूर्ति का शीघ्र ही दर्शन कर सकें ? साथ ही यह भी जानना चाहते हैं, क्या वर्तमान काल में ऐसा कोई पुरुष संसार में है जिसको उपर्युक्त प्रकार से भगवान् मिले हों ?
वास्तव में तो इन तीनों प्रश्नों का उत्तर वे ही महान पुरुष दे सकते हैं जिनको भगवान् की उस मनोमोहिनी मूर्ति साक्षात् दर्शन हुआ हो |
यद्यपि मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ तथापि परमात्मा की और महान पुरुषों की दया से केवल अपने मनोविनोदार्थ तीनों प्रश्नों के सम्बन्ध में क्रमशः कुछ लिखने का साहस कर रहा हूँ |
(१) जिस तरह सत्ययुगादि में ध्रुव, प्रह्लादादि को साक्षात् दर्शन होने के प्रमाण मिलते हैं उसी तरह कलियुग में भी सूरदास, तुलसीदासादि बहुत-से भक्तों को प्रत्यक्ष दर्शन होने का इतिहास मिलता है; बल्कि विष्णुपुराणादि में तो सत्ययुग की अपेक्षा कलियुग में भगवत-दर्शन होना बड़ा ही सुगम बताया है | श्रीमद्भागवत् में भी कहा—
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः |
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकिर्त्तानात् || (१२ | ३ | ५२)
‘सत्ययुग में निरंतर विष्णु का ध्यान करने से, त्रेता में यज्ञद्वारा यजन करने से और द्वापर में पूजा (उपासना) करने से जो परमगति की प्राप्ति होती है वही कलियुग में केवल नाम-कीर्तन से मिलती है |’
जैसे अरणी की लकड़ियों को मथने से अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसी प्रकार सच्चे हृदय की प्रेमपूरित पुकार की रगड़ से अर्थात् उस भगवान् के प्रेममय नामोच्चारण की गम्भीर ध्वनि के प्रभावसे भगवान् भी प्रकट हो जाते हैं | महर्षि पतंजलि ने भी अपने योगदर्शन में कहा है—
स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोग: | (२ | ४४)
‘नामोच्चार से इष्टदेव परमेश्वर के साक्षात् दर्शन होते हैं |’
जिस तरह सत्य-संकल्पवाला योगी जिस वस्तु के लिए संकल्प करता है वही वस्तु प्रत्यक्ष प्रकट हो जाती है, उसी तरह शुद्ध अन्तःकरणवाला भगवान् का सच्चा अनन्य प्रेमी भक्त जिस समय भगवान् के प्रेममें मग्न होकर भगवान् की जिस प्रेममयी मूर्ति के दर्शन करने की इच्छा करता है उस रूप में ही भगवान् तत्काल प्रकट हो जाते हैं | गीता अ० ११ श्लोक ५४ में भगवान् ने कहा है—
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ||
‘हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार (चतुर्भुज) रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्त्वसे जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ |’
एक प्रेमी मनुष्य को यदि अपने दूसरे प्रेमी से मिलने की उत्कट इच्छा हो जाती है और यह खबर यदि दूसरे प्रेमी को मालूम हो जाती है तो वह स्वयं बिना मिले नहीं रह सकता, फिर भला यह कैसे संभव है कि जिसके समान प्रेम के रहस्य को कोई भी नहीं जानता वह प्रेममूर्ति परमेश्वर अपने प्रेमी भक्त से बिना मिले रह सके ?
अतएव सिद्ध होता है कि वह प्रेममूर्ति परमेश्वर सब काल तथा सब देश में सब मनुष्यों को भक्तिवश होकर अवश्य ही प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं |
जय श्री कृष्ण ।
#🕉️सनातन धर्म🚩 #☝अनमोल ज्ञान
कैसा हो हिंदू घर?
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1.घर का मुख्य द्वार चार ईशान, उत्तर, पूर्व और पश्चिम में से किसी एक दिशा में हो।
2.घर के सामने आँगन और पीछे भी आँगन हो जिसके बीच में तुलसी का एक पौधा लगा हो।
3.घर के सामने या निकट तिराहा-चौराह नहीं होना चाहिए।
4.घर का दरवाजा दो पल्लों का होना चाहिए। अर्थात बीच में से भीतर खुलने वाला हो। दरवाजे की दीवार के दाएँ शुभ और बाएँ लाभ लिखा हो।
5.घर के प्रवेश द्वार के ऊपर स्वस्तिक अथवा 'ॐ' की आकृति लगाएँ।
6 .घर के अंदर आग्नेय कोण में किचन, ईशान में प्रार्थना-ध्यान का कक्ष हो, नैऋत्य कोण में शौचालय, दक्षिण में भारी सामान रखने का स्थान आदि हो।
7.घर में बहुत सारे देवी-देवताओं के चित्र या मूर्ति ना रखें। घर में मंदिर ना बनाएँ।
8.घर के सारे कोने और ब्रह्म स्थान (बीच का स्थान) खाली रखें।
9.घर की छत में किसी भी प्रकार का उजालदान ना रखें।
10.घर हो मंदिर के आसपास तो घर में सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है।
11.घर में किसी भी प्रकार की नकारात्मक वस्तुओं का संग्रह ना करें ।
12.घर में सीढ़ियाँ विषम संख्या (5,7, 9) में होनी चाहिए।
13.उत्तर, पूर्व तथा उत्तर-पूर्व (ईशान) में खुला स्थान अधिक रखना चाहिए।
14. घर के उपर केसरिया धवज लगाकर रखें।
16. घर में किसी भी तरह के नकारात्मक कांटेदार पौधे या वृक्ष रोपित ना करें।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#जय श्री हनुमान
माँ सीता की रसोई और हनुमान जी का भोजन
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घटना उस समय की है जब श्री राम और देवी सीता वनवास की अवधि पूरी करके अयोध्या लौट चुके हैं। अन्य सब लोग तो श्री राम के राज्याभिषेक के उपरांत अपने अपने राज्यों को लौट गए, किंतु हनुमान जी ने श्री राम के चरणों में रहने को ही जीवन का लक्ष्य माना।
एक दिन देवी सीता के मन में आया कि हनुमान ने लंका में आकर मुझे खोज निकाला और फिर युद्ध में भी श्री राम को अनुपम सहायता की, अब भी अपने घर से दूर रह कर हमारी सेवा करते हैं, तो मुझे भी उनके सम्मान में कुछ करना चाहिए। यह विचार कर उन्होंने हनुमान को अपनी रसोई से भोजन के लिए आमंत्रित कर डाला माँ स्वयं पका कर खिलाएँगी आज अपने पुत्र हनुमान को।
सुबह से माता रसोई में व्यस्त हैं हर प्रकार से हनुमान जी की पसंद के भोजन पकाए जा रहे हैं। एक थाल में मोतीचूर के लड्डू सजे हैं, तो दुसरे में जलेबियाँ पूड़ी और कचोरी और बूंदी भी पकाए जा रहे हैं आज किसी को भोजन की आज्ञा नहीं जब तक कि हनुमान न खा लें प्रभु राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न सभी प्रतीक्षा में हैं कि कब हनुमान भोजन के लिए आयें और कब हमारी भी पेट पूजा हो।
दोपहर हुई और निमंत्रण के समय अन्य्सार पवनपुत्र का आगमन हुआ बड़े शौक से आ कर माता की चरण वन्दना की और अनुमति पाकर आसन पर विराजे माँ परोसने लगी और पुत्र खाने लगा। लायो माता लायो पूड़ी दो, कचोरी दो, लड्डू दो हनुमान मांग मांग कर खा रहे हैं और माता रीझ कर खिला रही हैं थाल के थाल सफाचट होते जा रहे हैं पर हनुमान की तृप्ति नहीं हुई माता ने जितना पकाया था सब समाप्त, किंतु अभी पेट कहाँ भरा लल्ला का?
माता सीता पुनः भागी रसोई की ओर, पुनः चूल्हा जलाया, पकाना आरम्भ किया, उधर हनुमान पुकार रहे हैं, माता बहुत स्वादिष्ट भोजन है, और दीजिये, अभी पेट नहीं भरा माता पकाती जा रही हैं, हनुमान खाते जा रहे हैं भण्डार का सारा अन्न समाप्त माता पर धर्मसंकट आन पडा है, क्या करें? भागी गयीं श्री राम प्रभु से सहायता की गुहार करने प्रभु आप ही कुछ कीजिये, और भंडार का प्रबंध कीजिये, ये हनुमान तो सब चट किये जा रहा है।
श्री राम सुन कर हंस दीये, बोले, सीते, तुमने मेरे भक्त को अब तक नहीं पहचाना उसका पेट इन सबसे नहीं भरने वाला, उसे कुछ और चाहिए देवी ने पूछा, क्या है वो वस्तु जो मेरे हनुमान लल्ला को तृप्ति देगी? रामजी बोले चलो मेरे संग, मंदिर में ले गए, वहां तुलसी माँ विराजित है एक पत्ता हाथ में लिया, आँख बंद करके उसमें अपने स्नेह, अपने आशीष, अपनी कृपा का समावेश किया, और देवी को पकड़ा दिया, जायो देवी अपने पुत्र को संतुष्ट करो।
माता भी समझ चुकी अब तो अपने पुत्र की इच्छा को सौम्य मुस्कान लिए लौटीं रसोई की ओर, बोलीं, पुत्र हाथ बढायो और वो ग्रहण करो जिसकी इच्छा मन में लिए तुम मेरा पूरा भण्डार निपटा गए हनुमान जी ने हाथ बढाया और अभिमंत्रित तुलसीदल ग्रहण किया मुंह में रखते ही चित्त प्रसन्न, और आत्मा तृप्त आसन से उठ खड़े हुए, बोले माँ, आनंद आ गया आपने पहले ही दे दिया होता तो इतना परिश्रम न करना पड़ता आपको।
माता हंस पडी, बोलीं, पुत्र तुम्हारी महिमा केवल तुम्हारे प्रभु जानते हैं वो भगवान् और तुम उनके भक्त, मैं माता तो बीच में यूं ही आ गयी हनुमान ने चरणों में प्रणाम किया, बोले, माँ आप बीच में हो तो ही प्रसाद मिला है आज मुझे, आपके श्री कर से माता के नयनों में आनंद के अश्रु चमक आये, और मुख से अपार आशीष अपने हनुमान लल्ला के लिए।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#🕉️सनातन धर्म🚩 #☝अनमोल ज्ञान
संसार क्षणभंगुर है, ऐसा मत समझ लेना
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महाभारत में बड़ी प्राचीन, बड़ी मीठी कथा है कि जब पांडव जंगल में अज्ञातवास पर हैं, भटकते रहे हैं दिन में–दोपहरी–पानी नहीं मिला। सांझ एक भाई खोजने निकला, झील मिल गई। लेकिन जब वह झील में पानी भरने को झुका, तो आवाज आई–रुको! जब तक मेरे प्रश्न का उत्तर न दो, तब तक पानी न भर सकोगे। कोई यक्ष उस झील पर कब्जा किए था। पूछा, क्या है तुम्हारा प्रश्न? यक्ष ने कहा, अगर उत्तर न दिया या उत्तर गलत हुआ, तो तत्क्षण मृत हो जाओगे। अगर उत्तर दिया, तो जल भी मिलेगा और अनंत भेंट भी दूंगा। प्रश्न था कि मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा सत्य क्या है? जो उत्तर दिया–जो भी दिया हो–वह ठीक नहीं था। एक भाई गिरा, मृत हो गया। ऐसे चार भाई एक के बाद एक गए। अंत में युधिष्ठिर गए कि हो क्या रहा है! चारों भाइयों को मरे हुए पाया। यक्ष की आवाज आई–सावधान! पहले मेरे प्रश्न का उत्तर, अन्यथा वही होगा जो इनका हुआ है। पानी एक ही शर्त पर भर सकते हो, वह मेरा ठीक उत्तर मिल जाए। क्योंकि उसी उत्तर पर मेरी मुक्ति निर्भर है। जिस दिन मुझे ठीक उत्तर मिल जाएगा, उस दिन मैं भी मुक्त हो जाऊंगा; यह मेरा बंधन यक्ष होने का टूट जाएगा। प्रश्न है: मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा सत्य क्या है? युधिष्ठिर ने कहा, यही कि चाहे कितने ही अनुभव मिलें, मनुष्य सीख नहीं पाता। यक्ष मुक्त हो गया। चारों भाई पुनरुज्जीवित हो गए। उसकी प्रसन्नता में, मुक्ति की प्रसन्नता में उसने चारों को पुनरुज्जीवन दिया।
मनुष्य को कितने ही अनुभव हो जाएं, सीख नहीं पाता। एक स्त्री से छूटता है, दूसरी! दूसरी से छूटता है, तीसरी! एक उपद्रव मिटता है, दूसरा! एक सफलता का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, तो दूसरा! एक दौड़ बंद नहीं हो पाती कि दूसरी शुरू कर देता है, दौड़ से नहीं मुक्त होता। एक वासना गिर नहीं पाती कि दस खड़ी कर लेता है। वासना की भ्रांति नहीं दिख पाती। और हर चीज के पीछे अपने तर्क खोज लेता है, अपने कारण खोज लेता है। और कभी यह नहीं देखता कि भूल मेरी होगी। सदा भूल किसी और पर थोप देता है। निश्चिंत होकर फिर भूल करने में लग जाता है।
दूसरे पर भूल थोपना, भूल को और-और करने की व्यवस्था है। जब भी तुम किसी को कहते हो कि तुम जिम्मेवार हो, तभी तुम अपनी जिम्मेवारी से इनकार कर रहे हो। और वही जिम्मेवारी तुम्हें जगा सकती थी; क्योंकि उसी जिम्मेवारी के क्षण में तुम्हें दिखाई पड़ सकता था कि मैं भूल कर रहा हूं।
भूल किसी स्त्री में नहीं है, न किसी पुरुष में है; भूल उस कामना और कल्पना में है जो तुम किसी स्त्री या पुरुष पर आरोपित करते हो। वह क्षणभंगुर है; वह कामना टूटेगी।
जरा सोचो तो, मन का एक विचार तुम कितनी देर तक थिर रख सकते हो? भोर की तरैया भी थोड़ी ज्यादा देर टिकती है। ओस का कण भी कभी-कभी देर तक टिक जाता है। लेकिन तुम अपने मन में एक विचार को कितनी देर टिका सकते हो? क्षण भर है, और गया। पकड़ो तो भी पकड़ में नहीं आता, मुट्ठी खाली रह जाती है। दौड़ो तो भी कहीं खबर नहीं मिलती–कहां गया। हवा के झोंके की तरह आता है और खो जाता है। ऐसे मन के आधार पर तुम जो संसार में जीते हो, वह जीवन क्षणभंगुर है।
संसार क्षणभंगुर है, ऐसा मत समझ लेना। वह तो सिर्फ कहने का एक ढंग है। संसार क्षणभंगुर नहीं है। संसार तो तुम नहीं थे, तब भी था; तुम नहीं रहोगे, तब भी रहेगा। संसार तो शाश्वत है। लेकिन तुम जो संसार बना लेते हो अपने ही मन के आधार पर, वह क्षणभंगुर है। वस्तुतः संसार तो है ही नहीं, परमात्मा है। परमात्मा के पर्दे पर तुम जो अपनी कामना के चित्र बना लेते हो, वे संसार हैं। और उस संसार में दुख ही दुख है।
रोज तुम्हें दुख मिलता है, फिर भी तुम कल के सुख की आशा में जीए चले जाते हो। कितनी बार तुम गिरते हो, फिर उठ-उठ कर खड़े हो जाते हो। कितनी बार जीवन तुम्हें कहता है कि तुम जो खोज रहे हो वह मिलेगा नहीं, लेकिन तुम कोई न कोई बहाना खोज लेते हो–कोई और भूल हो गई, कोई और गलती हो गई–अब की बार सब ठीक कर लेंगे, अब ऐसी भूल न हो पाएगी।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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*🙏सादर वन्दे🙏*
*🚩 धर्म यात्रा 🚩*
*मे आज*
*📍 पंढरपुर ,महाराष्ट्र📍*
भारत के महाराष्ट्र राज्य के सोलापुर ज़िले में *पंढरपुर* एक नगर स्थित है। जो भीमा नदी के किनारे बसा हुआ है , इस नगर में विष्णुजी का प्रसिद्ध मन्दिर हैं ।
इस मन्दिर से जुड़ी हुई एक कहानी बड़ी ही अद्भुत हैं ; किवंदती के अनुसार ; पंढरपुर गाँव में पुंडलीक नाम का एक युवक रहता था । उसके वृद्ध माता पिता काफी बीमार हो गए अतएव वह उनकी सेवा कर रहा था और विपन्न अवस्था मे चल रहा था उसकी भगवान कृष्ण पर बहुत असीम श्रद्धा थी और वह भगवान कृष्ण के दर्शन की प्रबल इच्छा करता रहता था ।उसकी परम भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान रात्रि में उसके दरवाजे पर आए किन्तु वह उस समय अपने माता - पिता की सेवा में इतना लीन था कि उसे इसका भान ही न हो सका , पुंडलीक को दरवाजे से, अंदर किसी व्यक्ति के आने का जब भान हुआ तो बिना उधर देखे ही उसने पूछा कौन हो ? उस पर भगवान बोले , मैं विट्ठल हूँ , तुम्हारी सहायता करना चाहता हूँ । पुंडलीक ने फिर बिना देखे ही एक ईंट भगवान की तरफ फेंक दी और कहा कि इसी पर विश्राम करो , मैं माँ और पिता की सेवा समाप्त कर लूँ तो तुमसे आकर मिलता हूँ । माता -- पिता की सेवा में सारी रात बीत गई और सवेरा हो गया ; भगवान रात भर ईंट पर ही खड़े रहे । भगवान को बड़ी देर हो गई तो माता रुक्मणी उन्हें खोजते हुए वहाँ तक आ गई ।पुंडलीक ने यह जानकर कि कोई और व्यक्ति भी विट्ठल के साथ उनके यहाँ आया हैं , तब उनके लिए भी विश्राम हेतु एक ईंट और सरका दी ; सवेरा हो गया ।लोगो का मार्ग से निकलने का समय आ गया तब , ईंट पर खड़े हुए *विट्ठल और रुक्मणी* ने अपने आपको मूर्ति में परिवर्तित कर दिया । तब से दोनों विष्णु और रुक्मणी वहीं ईंट पर खड़े कमर पर हाथ धरे प्रतीक्षा कर रहे है कि पुंडलीक की माता - पिता की सेवा समाप्त हो और वह उनकी तरफ देखे । पुंडलीक की माता पिता पर इतनी श्रद्धा से भगवान इतने प्रसन्न हुए की सदा के लिए उस स्थान पर मूर्ति बन कर उनके पास आ गए ।
कोई भी कार्य पूर्ण श्रद्धा से किया जाता है तो वह प्रभु की पूजा की तरह होता है । पूर्ण श्रद्धा से अहंकार मिट जाता हैं और ऐसा होते ही सब प्रभुमय हो जाता है ।मान्यता हैं कि पंढरपुर के इस मन्दिर में वही *विट्ठल और रुक्मणीजी* की मूर्ति आज भी विराजमान है ।
भगवान विष्णु के अवतार , बिठोबा और उनकी पत्नी रुक्मिणी के सम्मान में इस शहर में वर्ष में चार बार त्योहार मनाए जाते हैं जहाँ साल भर करोडों हिंदू तीर्थयात्री आते हैं।
जब भी आप मन्दिर में दर्शन के लिये पहुंचते है , तो सबसे पहले अपने पैरों को धो लें , इसके बाद ही मन्दिर के अंदर प्रवेश करें , मन्दिर में प्रवेश करने से पहले हमेशा सीढ़ियों/चौखट को छूकर प्रणाम करें , इसके साथ घंटी को बजाते हुए भगवान का ध्यान करें और अपने मन में बसे सभी बुरे विचारों को मन्दिर के बाहर ही छोड़कर साफ मन से आगे बढ़ें , इस तरह से मन्दिर में प्रवेश करना है।
इस मन्दिर में दो प्रकार के दर्शन होते हैं - *मुख दर्शन* -- दूर से मूर्ति के केवल मुख मण्डल के दर्शन दूर से
करना और *पद दर्शन* -- पद दर्शन में भक्तों को आशीर्वाद लेने के लिए भगवान के चरण स्पर्श करने की अनुमति होती है।
पंढरपुर कहाँ है --
पंढरपुर की दूरी सोलापुर से 75 कि.मी. है। पंढरपुर रेलवे स्टेशन से 2 कि.मी. की दूरी पर यह मन्दिर स्थित है l पुणे से पंढरपुर जाने के लिये सड़क मार्ग से दूरी 230 कि.मी. है।
दक्षिण भारत की यात्रा संपूर्ण कर मध्य प्रदेश की ओर आने वाले यात्रियों को पंढरपुर के दर्शन अवश्य करते हुए आना चाहिए ।
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*धर्मयात्रा में दी गई ये जानकारियाँ , मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है। यहाँ यह बताना जरूरी है कि , धर्मयात्रा किसी भी तरह की मान्यता , जानकारी की पुष्टि नहीं करता है ।*
*🙏शिव🙏९९९३३३९६०५*
#मंदिर दर्शन
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भगवान श्री लक्ष्मण जी की सन्देश पत्रिका देते हुए गुप्तचरों ने रावण से कहा कि प्रभु श्री राम के छोटे भाई ने यह पत्र आपके लिए दिया है, कृपया शांत हो कर इसे पढवाये व पूर्ण हृदय से समझने का प्रयास करें , रावण ने हंसते हुए बांये हाथ से उसको लिया व खुद न पढ़के मूर्ख ने मंत्री को दे दी कि पढ़ के सुनाओ।
जय श्री राम
##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
#श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०६८
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्ड
तिरसठवाँ सर्ग
विश्वामित्रको ऋषि एवं महर्षिपदकी प्राप्ति, मेनकाद्वारा उनका तपोभंग तथा ब्रह्मर्षिपदकी प्राप्तिके लिये उनकी घोर तपस्या
[शतानन्दजी कहते हैं—श्रीराम!] जब एक हजार वर्ष पूरे हो गये, तब उन्होंने व्रतकी समाप्तिका स्नान किया। स्नान कर लेनेपर महामुनि विश्वामित्रके पास सम्पूर्ण देवता उन्हें तपस्याका फल देनेकी इच्छासे आये॥१॥
उस समय महातेजस्वी ब्रह्माजीने मधुर वाणीमें कहा—'मुने! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने द्वारा उपार्जित शुभकर्मोंके प्रभावसे ऋषि हो गये'॥२॥
उनसे ऐसा कहकर देवेश्वर ब्रह्माजी पुनः स्वर्गको चले गये। इधर महातेजस्वी विश्वामित्र पुनः बड़ी भारी तपस्यामें लग गये॥३॥
नरश्रेष्ठ! तदनन्तर बहुत समय व्यतीत होनेपर परम सुन्दरी अप्सरा मेनका पुष्करमें आयी और वहाँ स्नानकी तैयारी करने लगी॥४॥
महातेजस्वी कुशिकनन्दन विश्वामित्रने वहाँ उस मेनकाको देखा। उसके रूप और लावण्यकी कहीं तुलना नहीं थी। जैसे बादलमें बिजली चमकती हो, उसी प्रकार वह पुष्करके जलमें शोभा पा रही थी॥५॥
उसे देखकर विश्वामित्र मुनि कामके अधीन हो गये और उससे इस प्रकार बोले—'अप्सरा! तेरा स्वागत है, तू मेरे इस आश्रममें निवास कर॥६॥
'तेरा भला हो। मैं कामसे मोहित हो रहा हूँ। मुझपर कृपा कर।' उनके ऐसा कहनेपर सुन्दर कटिप्रदेशवाली मेनका वहाँ निवास करने लगी॥७॥
इस प्रकार तपस्याका बहुत बड़ा विघ्न विश्वामित्रजीके पास स्वयं उपस्थित हो गया। रघुनन्दन! मेनकाको विश्वामित्रजीके उस सौम्य आश्रमपर रहते हुए दस वर्ष बड़े सुखसे बीते॥८½॥
इतना समय बीत जानेपर महामुनि विश्वामित्र लज्जित-से हो गये। चिन्ता और शोकमें डूब गये॥९½॥
रघुनन्दन! मुनिके मनमें रोषपूर्वक यह विचार उत्पन्न हुआ कि 'यह सब देवताओंकी करतूत है। उन्होंने हमारी तपस्याका अपहरण करनेके लिये यह महान् प्रयास किया है॥१०½॥
'मैं कामजनित मोहसे ऐसा आक्रान्त हो गया कि मेरे दस वर्ष एक दिन-रातके समान बीत गये। यह मेरी तपस्यामें बहुत बड़ा विघ्न उपस्थित हो गया॥११½॥
ऐसा विचारकर मुनिवर विश्वामित्र लम्बी साँस खींचते हुए पश्चात्तापसे दुःखित हो गये॥१२॥
उस समय मेनका अप्सरा भयभीत हो थर-थर काँपती हुई हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी हो गयी। उसकी ओर देखकर कुशिकनन्दन विश्वामित्रने मधुर वचनोंद्वारा उसे विदा कर दिया और स्वयं वे उत्तर पर्वत (हिमवान्) पर चले गये॥१३½॥
वहाँ उन महायशस्वी मुनिने निश्चयात्मक बुद्धिका आश्रय ले कामदेवको जीतनेके लिये कौशिकी-तटपर जाकर दुर्जय तपस्या आरम्भ की॥१४½॥
श्रीराम! वहाँ उत्तर पर्वतपर एक हजार वर्षोंतक घोर तपस्यामें लगे हुए विश्वामित्रसे देवताओंको बड़ा भय हुआ॥१५½॥
सब देवता और ऋषि परस्पर मिलकर सलाह करने लगे—'ये कुशिकनन्दन विश्वामित्र महर्षिकी पदवी प्राप्त करें, यही इनके लिये उत्तम बात होगी'॥१६½॥
देवताओंकी बात सुनकर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजी तपोधन विश्वामित्रके पास जा मधुर वाणीमें बोले—'महर्षे! तुम्हारा स्वागत है। वत्स कौशिक! मैं तुम्हारी उग्र तपस्यासे बहुत संतुष्ट हूँ और तुम्हें महत्ता एवं ऋषियोंमें श्रेष्ठता प्रदान करता हूँ'॥१७-१८½॥
ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर तपोधन विश्वामित्र हाथ जोड़ प्रणाम करके उनसे बोले—'भगवन्! यदि अपने द्वारा उपार्जित शुभकर्मोंके फलसे मुझे आप ब्रह्मर्षिका अनुपम पद प्रदान कर सकें तो मैं अपनेको जितेन्द्रिय समझूँगा'॥१९-२०½॥
तब ब्रह्माजीने उनसे कहा—'मुनिश्रेष्ठ! अभी तुम जितेन्द्रिय नहीं हुए हो। इसके लिये प्रयत्न करो।' ऐसा कहकर वे स्वर्गलोकको चले गये॥२१½॥
देवताओंके चले जानेपर महामुनि विश्वामित्रने पुनः घोर तपस्या आरम्भ की। वे दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये बिना किसी आधारके खड़े होकर केवल वायु पीकर रहते हुए तपमें संलग्न हो गये॥२२½॥
गर्मीके दिनोंमें पञ्चाग्निका सेवन करते, वर्षाकालमें खुले आकाशके नीचे रहते और जाङेके समय रात-दिन पानीमें खड़े रहते थे। इस प्रकार उन तपोधनने एक हजार वर्षोंतक घोर तपस्या की॥२३-२४॥
महामुनि विश्वामित्रके इस प्रकार तपस्या करते समय देवताओं और इन्द्रके मनमें बड़ा भारी संताप हुआ॥२५॥
समस्त मरुद्गणोंसहित इन्द्रने उस समय रम्भा अप्सरासे ऐसी बात कही, जो अपने लिये हितकर और विश्वामित्रके लिये अहितकर थी॥२६॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६३॥*
###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५













