Davinder Singh Rana
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. *कार्तिक माहात्म्य* *अध्याय–04* 🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄 नारदजी ने कहा–‘ऐसा कहकर भगवान विष्णु मछली का रूप धारण कर के आकाश से जल में गिरे। उस समय विन्ध्याचल पर्वत पर तप कर रहे महर्षि कश्यप अपनी अंजलि में जल लेकर खड़े थे। भगवान उनकी अंजलि में जा गिरे। महर्षि कश्यप ने दया कर के उसे अपने कमण्डल में रख लिया। मछली के थोड़ा बड़ा होने पर महर्षि कश्यप ने उसे कुएँ में डाल दिया। जब वह मछली कुएँ में भी न समा सकी तो उन्होंने उसे तालाब में डाल दिया, जब वह तालाब में भी न आ सकी तो उन्होंने उसे समुद्र में डाल दिया। वह मछली वहाँ भी बढ़ने लगी फिर मत्स्यरूपी भगवान विष्णु ने इस शंखासुर का वध किया और शंखासुर को हाथ में लेकर बद्रीवन में आ गये, वहाँ उन्होंने सम्पूर्ण ऋषियों को बुलाकर इस प्रकार आदेश दिया। भगवान् विष्णु ने कहा–‘मुनीश्वरों! तुम जल के भीतर बिखरे हुए वेदमन्त्रों की खोज करो और जितनी जल्दी हो सके, उन्हें सागर के जल से बाहर निकाल आओ तब तक मैं देवताओं के साथ प्रयाग में ठहरता हूँ।’ तब उन तपोबल सम्पन्न महर्षियों ने यज्ञ और बीजों सहित सम्पूर्ण वेद मन्त्रों का उद्धार किया। उनमें से जितने मन्त्र जिस ऋषि ने उपलब्ध किए वही उन बीज मन्त्रों का उस दिन से ऋषि माना जाना लगा। तदनन्तर सब ऋषि एकत्र होकर प्रयाग में गये, वहाँ उन्होंने ब्रह्माजी सहित भगवान विष्णु को उपलब्ध हुए सभी वेद मन्त्र समर्पित कर दिए। सब वेदों को पाकर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने देवताओं और ऋषियों के साथ प्रयाग में अश्वमेघ यज्ञ किया। यज्ञ समाप्त होने पर सब देवताओं ने भगवान से निवेदन किया। देवताओं ने कहा–‘देवाधिदेव जगन्नाथ! इस स्थान पर ब्रह्माजी ने खोये हुए वेदों को पुन: प्राप्त किया है और हमने भी यहाँ आपके प्रसाद से यज्ञभाग पाये हैं। अत: यह स्थान पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ, पुण्य की वृद्धि करने वाला एवं भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाला हो। साथ ही यह समय भी महापुण्यमय और ब्रह्मघाती आदि महापापियों की भी शुद्धि करने वाला हो तथा तह स्थान यहाँ दिये हुए दान को अक्षय बना देने वाला भी हो, यह वर दीजिए।’ भगवान् विष्णु बोले–‘देवताओं! तुमने जो कुछ कहा है, वह मुझे स्वीकार है, तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। आज से यह स्थान ब्रह्मक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध होगा, सूर्यवंश में उत्पन्न राजा भगीरथ यहाँ गंगा को ले आयेंगे और वह यहाँ सूर्यकन्या यमुना से मिलेगी। ब्रह्माजी और तुम सब देवता मेरे साथ यहाँ निवास करो। आज से यह तीर्थ तीर्थराज के नाम से विख्यात होगा। तीर्थराज के दर्शन से तत्काल सब पाप नष्ट हो जायेंगे। जब सूर्य मकर राशि में स्थित होंगे उस समय यहाँ स्नान करने वाले मनुष्यों के सब पापों का यह तीर्थ नाश करेगा। यह काल भी मनुष्यों के लिए सदा महान पुण्य फल देने वाला होगा। माघ में सूर्य के मकर राशि में स्थित होने पर यहाँ स्नान करने से सालोक्य आदि फल प्राप्त होंगे।’ नारदजी ने कहा–‘देवाधिदेव भगवान विष्णु देवताओं से ऐसा कहकर ब्रह्माजी के साथ वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात इन्द्रादि देवता भी अपने अंश से प्रयाग में रहते हुए वहाँ से अन्तर्धान हो गये। जो मनुष्य कार्तिक में तुलसीजी की जड़ के समीप श्रीहरि का पूजन करता है वह इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग कर के अन्त में वैकुण्ठ धाम को जाता है।’ ॥जय जय श्री हरि॥ ॥ राणा जी खेड़ांवाली॥ #🕉️सनातन धर्म🚩 #श्री हरि
*‼️🚩 श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः 🚩‼️* *श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण किष्किंधाकाण्ड* *📖 ( दूसरा- सर्ग) 📖* *✍️सुग्रीव तथा वानरोंकी आशङ्का, हनुमान्जीद्वारा उसका निवारण तथा सुग्रीवका हनुमान्जीको श्रीराम-लक्ष्मणके पास उनका भेद लेनेके लिये भेजना* ======================= महात्मा श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयोंको श्रेष्ठ आयुध धारण किये वीर वेशमें आते देख (ऋष्यमूक पर्वतपर बैठे हुए) सुग्रीवके मनमें बड़ी शङ्का हुई॥१॥ वे उद्विग्नचित्त होकर चारों दिशाओंकी ओर देखने लगे। उस समय वानरशिरोमणि सुग्रीव किसी एक स्थानपर स्थिर न रह सके॥२॥ महाबली श्रीराम और लक्ष्मणको देखते हुए सुग्रीव अपने मनको स्थिर न रख सके। उस समय अत्यन्त भयभीत हुए उन वानरराजका चित्त बहुत दुःखी हो गया॥३॥ सुग्रीव धर्मात्मा थे—उन्हें राजधर्मका ज्ञान था। उन्होंने मन्त्रियोंके साथ विचारकर अपनी दुर्बलता और शत्रुपक्षकी प्रबलताका निश्चय किया। तत्पश्चात् वे समस्त वानरोंके साथ अत्यन्त उद्विग्न हो उठे॥४॥ वानरराज सुग्रीवके हृदयमें बड़ा उद्वेग हो गया था। वे श्रीराम और लक्ष्मणकी ओर देखते हुए अपने मन्त्रियोंसे इस प्रकार बोले—॥५॥ 'निश्चय ही ये दोनों वीर वालीके भेजे हुए ही इस दुर्गम वनमें विचरते हुए यहाँ आये हैं। इन्होंने छलसे चीर वस्त्र धारण कर लिये हैं, जिससे हम इन्हें पहचान न सकें॥६॥ उधर सुग्रीवके सहायक दूसरे-दूसरे वानरोंने जब उन महाधनुर्धर श्रीराम और लक्ष्मणको देखा, तब वे उस पर्वततटसे भागकर दूसरे उत्तम शिखरपर जा पहुँचे॥७॥ वे यूथपति वानर शीघ्रतापूर्वक जाकर यूथपतियोंके सरदार वानरशिरोमणि सुग्रीवको चारों ओरसे घेरकर उनके पास खड़े हो गये॥८॥ इस तरह एक पर्वतसे दूसरे पर्वतपर उछलते-कूदते और अपने वेगसे उन पर्वत-शिखरोंको प्रकम्पित करते हुए वे समस्त महाबली वानर एक मार्गपर आ गये। उन सबने उछल-कूदकर उस समय वहाँ दुर्गम स्थानोंमें स्थित हुए पुष्पशोभित बहुसंख्यक वृक्षोंको तोड़ डाला था॥९-१०॥ उस बेलामें चारों ओरसे उस महान् पर्वतपर उछलकर आते हुए वे श्रेष्ठ वानर वहाँ रहनेवाले मृगों, बिलावों तथा व्याघ्रोंको भयभीत करते हुए जा रहे थे॥११॥ इस प्रकार सुग्रीवके सभी सचिव पर्वतराज ऋष्यमूकपर आ पहुँचे और एकाग्रचित्त हो उन वानरराजसे मिलकर उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥१२॥ तदनन्तर वालीसे बुराईकी आशङ्का करके सुग्रीवको भयभीत देख बातचीत करनेमें कुशल हनुमान्‌जी बोले—॥१३॥ 'आप सब लोग वालीके कारण होनेवाली इस भारी घबराहटको छोड़ दीजिये। यह मलय नामक श्रेष्ठ पर्वत है। यहाँ वालीसे कोई भय नहीं है॥१४॥ 'वानरशिरोमणे! जिससे उद्विग्नचित्त होकर आप भागे हैं, उस क्रूर दिखायी देनेवाले निर्दय वालीको मैं यहाँ नहीं देखता हूँ॥१५॥ सौम्य! आपको अपने जिस पापाचारी बड़े भाईसे भय प्राप्त हुआ है, वह दुष्टात्मा वाली यहाँ नहीं आ सकता; अतः मुझे आपके भयका कोई कारण नहीं दिखायी देता॥१६॥ 'आश्चर्य है कि इस समय आपने अपनी वानरोचित चपलताको ही प्रकट किया है। वानरप्रवर! आपका चित्त चञ्चल है। इसलिये आप अपनेको विचार-मार्गपर स्थिर नहीं रख पाते हैं॥१७॥ 'बुद्धि और विज्ञानसे सम्पन्न होकर आप दूसरोंकी चेष्टाओंके द्वारा उनका मनोभाव समझें और उसीके अनुसार सभी आवश्यक कार्य करें; क्योंकि जो राजा बुद्धि-बलका आश्रय नहीं लेता, वह सम्पूर्ण प्रजापर शासन नहीं कर सकता'॥१८॥ हनुमान्जीके मुखसे निकले हुए इन सभी श्रेष्ठ वचनोंको सुनकर सुग्रीवने उनसे बहुत ही उत्तम बात कही—॥१९॥ 'इन दोनों वीरोंकी भुजाएँ लंबी और नेत्र बड़े-बड़े हैं। ये धनुष, बाण और तलवार धारण किये देवकुमारोंके समान शोभा पा रहे हैं। इन दोनोंको देखकर किसके मनमें भयका संचार न होगा॥२०॥ 'मेरे मनमें संदेह है कि ये दोनों श्रेष्ठ पुरुष वालीके ही भेजे हुए हैं; क्योंकि राजाओंके बहुत-से मित्र होते हैं। अतः उनपर विश्वास करना उचित नहीं है॥२१॥ 'प्राणिमात्रको छद्मवेषमें विचरनेवाले शत्रुओंको विशेषरूपसे पहचाननेकी चेष्टा करनी चाहिये; क्योंकि वे दूसरोंपर अपना विश्वास जमा लेते हैं, परंतु स्वयं किसीका विश्वास नहीं करते और अवसर पाते ही उन विश्वासी पुरुषोंपर ही प्रहार कर बैठते हैं॥२२॥ 'वाली इन सब कार्योंमें बड़ा कुशल है। राजालोग बहुदर्शी होते हैं—वञ्चनाके अनेक उपाय जानते हैं, इसीलिये शत्रुओंका विध्वंस कर डालते हैं। ऐसे शत्रुभूत राजाओंको प्राकृत वेशभूषावाले मनुष्यों (गुप्तचरों) द्वारा जाननेका प्रयत्न करना चाहिये॥२३॥ 'अतः कपिश्रेष्ठ! तुम भी एक साधारण पुरुषकी भाँति यहाँसे जाओ और उनकी चेष्टाओंसे, रूपसे तथा बातचीतके तौर-तरीकोंसे उन दोनोंका यथार्थ परिचय प्राप्त करो॥२४॥ उनके मनोभावोंको समझो। यदि वे प्रसन्नचित जान पड़ें तो बारंबार मेरी प्रशंसा करके तथा मेरे अभिप्रायको सूचित करनेवाली चेष्टाओंद्वारा मेरे प्रति उनका विश्वास उत्पन्न करो॥२५॥ 'वानरशिरोमणे! तुम मेरी ही ओर मुँह करके खड़ा होना और उन धनुर्धर वीरोंसे इस वनमें प्रवेश करनेका कारण पूछना॥२६॥ 'यदि उनका हृदय शुद्ध जान पड़े तो भी तरह-तरहकी बातों और आकृतिके द्वारा यह जाननेकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये कि वे दोनों कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं आये हैं॥२७॥ वानरराज सुग्रीवके इस प्रकार आदेश देनेपर पवनकुमार हनुमान्‌जीने उस स्थानपर जानेका विचार किया, जहाँ श्रीराम और लक्ष्मण विद्यमान थे॥२८॥ अत्यन्त डरे हुए दुर्जय वानर सुग्रीवके उस वचनका आदर करके 'बहुत अच्छा कहकर' महानुभाव हनुमान्जी जहाँ अत्यन्त बलशाली श्रीराम और लक्ष्मण थे, उस स्थानके लिये तत्काल चल दिये॥२९॥ *इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके किष्किन्धाकाण्डमें दूसरा सर्ग पूरा हुआ॥२॥* *राणा जी खेड़ांवाली🚩* *🚩 जय जय श्री सीताराम 🚩* 🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷 #🎶जय श्री राम🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #🙏रामायण🕉 #🙏श्री राम भक्त हनुमान🚩
*कमर दर्द, हड्डी कमजोर... बस एक कटोरी दूध में ये चीज डालकर शाम को खा लें, फौलादी हो जाएगा शरीर* 🪵🪵🪵🪵🪵🪵🪵🪵🪵🪵🪵🪵 कमर दर्द, हड्डियों की कमजोरी और थकान अक्सर कैल्शियम, विटामिन D और प्रोटीन की कमी के कारण होती है। अगर रोजाना शाम को दूध में एक खास चीज मिलाकर पीया जाए तो हड्डियां मजबूत होंगी और शरीर में जबरदस्त ताकत आएगी। 🥄 क्या डालें दूध में? अंजीर (सूखा या ताज़ा) अंजीर कैल्शियम, फॉस्फोरस और मैग्नीशियम से भरपूर होता है, जो हड्डियों को मजबूत बनाता है। इसमें मौजूद फाइबर और मिनरल्स शरीर को लंबे समय तक एक्टिव और एनर्जेटिक रखते हैं। 🍵 बनाने का तरीका 1 कप गर्म दूध लें। उसमें 2–3 सूखे अंजीर डालकर 5–10 मिनट भिगो दें। नरम होने पर चम्मच से खाएं और दूध पी लें। 🌟 फायदे हड्डियां और जोड़ों को मजबूत बनाए – कैल्शियम और मैग्नीशियम से हड्डियों का घनत्व बढ़ता है। कमर दर्द में राहत – मसल्स और बोन को पोषण देता है। थकान दूर करे – नैचुरल शुगर और मिनरल्स से एनर्जी बढ़ती है। ब्लड सर्कुलेशन सुधारे – आयरन से खून की कमी पूरी करता है। पाचन में मददगार – फाइबर कब्ज से बचाता है। राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #🌿आयुर्वेद #💁🏻‍♀️घरेलू नुस्खे
. *कार्तिक की कहानियाँ* *पोस्ट–01* *विनायक जी की कथा* 🪴🪴🪴🪴🪴🪴🪴🪴🪴🪴🪴🪴 एक गाँव में माँ-बेटी रहती थीं। एक दिन बेटी अपनी माँ से कहने लगी–‘गाँव के सब लोग गणेश मेला देखने जा रहे हैं, मैं भी मेला देखने जाऊँगी।’ माँ ने कहा–‘वहाँ बहुत भीड़ होगी कहीं गिर जाओगी तो चोट लगेगी।’ लड़की ने माँ की बात नहीं सुनी और मेला देखने चल पड़ी। माँ ने जाने से पहले बेटी को दो लड्डू दिए और एक घण्टी में पानी दिया। माँ ने कहा–‘एक लड्डू तो गणेशजी को खिला देना और थोड़ा पानी पिला देना। दूसरा लड्डू तुम खा लेना और बचा पानी भी पी लेना।’ लड़की मेले में चली गई। मेला खत्म होने पर सभी गाँव वाले वापिस आ गए लेकिन लड़की वापिस नहीं आई। लड़की मेले में गणेश जी के पास बैठ गई और कहने लगी–‘एक लड्डू और पानी गणेशजी तुम्हारे लिए और एक लड्डू और बाकी बचा पानी मेरे लिए। इस तरह कहते-कहते सारी रात बीत गई। गणेशजी सोचने लगे–‘अगर मैने यह एक लड्डू और पानी नहीं पीया तो यह अपने घर नहीं जाएगी।’ यह सोचकर गणेशजी एक लड़के के वेश में आए और उससे एक लड्डू लेकर खा लिया और साथ ही थोड़ा पानी भी पी लिया फिर वह कहने लगे। गणेशजी बोले–‘माँगो तुम क्या माँगती हो ?’ लड़की मन में सोचने लगी–‘क्या माँगू ? अन्न माँगू या धन माँगू या अपने लिए अच्छा वर माँगू या खेत माँगू या महल माँग लूँ।’ वह मन में सोच रही थी तो गणेश जी उसके मन की बात को जान गए। गणेशजी लड़की से बोले–‘तुम अपने घर जाओ और तुमने जो भी मन में सोचा है वह सब तुम्हें मिलेगा।’ लड़की घर पहुँची तो माँ पूछने लगी। माँ ने पूछा–‘इतनी देर कैसे हो गई ?’ बेटी ने कहा–‘आपने जैसा कहा था मैंने वैसा ही किया है। लड़की ने सारी बात बता दी।’ देखते-ही-देखते जो भी लड़की ने सोचा था वह सब कुछ हो गया। हे ! गणेशजी महाराज जैसा आपने उन माँ-बेटी की सुनी है वैसे ही सबकी सुनना। ॐ श्रीगणेशाय् नमः राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🌸 जय श्री कृष्ण😇 #🎶जय श्री राम🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #श्री हरि
*पंचाध्यायी–महारासलीला* *पोस्ट–04* 🎍🎍🎍🎍🎍🎍🎍🎍🎍🎍🎍🎍 *भगवान् का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना* भगवान की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में इस प्रकार भाँति-भाँति से गाने और प्रलाप करने लगीं। अपने कृष्ण-प्यारे के दर्शन की लालसा से वे अपने को रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वर से फूट-फूटकर रोने लगीं। ठीक उसी समय उनके बीचो बीच भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनका मुख कमल मन्द-मन्द मुस्कान से खिला हुआ था। गले में वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका यह रूप क्या था, सबके मन को मथ डालने वाले कामदेव के मन को भी मथने वाला था। कोटि-कोटि कामों से भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर को आया देख गोपियों के नेत्र प्रेम और आनन्द से खिल उठे। वे सब-की-सब एक ही साथ इस प्रकार उठ खड़ी हुईं, मानो प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का संचार हो गया हो, शरीर के एक-एक अंग में नवीन चेतना, नूतन स्फूर्ति आ गयी हो। एक गोपी ने बड़े प्रेम और आनन्द से श्रीकृष्ण के करकमल को अपने दोनों हाथों में ले लिया और वह धीरे-धीरे उसे सहलाने लगी। दूसरी गोपी ने उनके चन्दन चर्चित भुजदण्ड को अपने कंधे पर रख लिय। तीसरी सुन्दरी ने भगवान का चबाया हुआ पान अपने हाथों में ले लिया। चौथी गोपी, जिसके हृदय में भगवान के विरह से बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमलों को अपने वक्षःस्थल पर रख लिया। पाँचवी गोपी प्रणय कोप से विह्वल होकर, भौंहें चढ़ाकर, दाँतों से होठ दबाकर अपने कटाक्ष-बाणों से बींधती हुई उनकी और ताकने लगी। छठी गोपी अपने निर्निमेष नयनों से उनके मुखकमल का मकरन्द-रस पान करने लगी। सातवीं गोपी नेत्रों के मार्ग से भगवान को अपने हृदय में ले गयी और फिर उसने आँखें बंद कर लीं। अब मन-ही-मन भगवान का आलिंगन करने से उसका शरीर पुलकित हो गया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उन व्रजसुन्दरियों को साथ लेकर यमुना जी के पुलिन में प्रवेश किया। उस समय खिले हुए कुन्द और मन्दार के पुष्पों की सुरभि लेकर बड़ी ही शीतल और सुगन्धित मन्द-मन्द वायु चल रही थी और उसकी महक से मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर मँडरा रहे थे। शरत पूर्णिमा के चन्द्रमा की चाँदनी अपनी निराली ही छटा दिखला रही थी। उसके कारण रात्रि के अन्धकार का तो कहीं पता ही न था, सर्वत्र आनन्द-मंगल का ही साम्राज्य छाया था। वह पुलिन क्या था, यमुना जी ने स्वयं अपनी लहरों के हाथों भगवान की लीला के लिये सुकोमल बालुका का रंगमंच बना रखा था। भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से गोपियों के हृदय में इतने आनन्द और इतने रस का उल्लास हुआ कि उनके हृदय की सारी आधि-व्याधि मिट गयी। अब उन्होंने अपने वक्षःस्थल पर लगी हुई रोली-केसर से चिह्नित ओढ़नी को अपने परम प्यारे सुहृद श्रीकृष्ण के विराजने के लिये बिछा दिया। बड़े-बड़े योगेश्वरों अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए हृदय में जिनके लिये आसन की कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने हृदय-सिंहासन पर बिठा नहीं पाते, वही सर्वशक्तिमान भगवान यमुना जी की रेती में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गये। सहस्र-सहस्र गोपियों के बीच में उनसे पूजित होकर भगवान बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। गोपियों ने अपनी मन्द-मन्द मुसकान, विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भौंहों से उनका सम्मान किया। किसी ने उनके चरणकमलों को अपनी गोद में रख लिया, तो किसी ने उनके करकमलों को। वे उनके संस्पर्श का आनन्द लेती हुई कभी-कभी कह उठती थीं, 'कितना सुकुमार है, कितना मधुर है। इसके बाद श्रीकृष्ण के छिप जाने से मन-ही-मन तनिक रूठकर उनके मुँह से ही उनका दोष स्वीकार कराने के लिये वे कहने लगीं–‘नटनागर! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं। परन्तु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्यारे! इन तीनों में तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है ? ’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–‘मेरी प्रिय सखियों! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है। लेन-देन मात्र है। न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिये ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है। सुन्दरियों! जो लोग प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं, जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता, उनका हृदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करने वालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न नहीं है। ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं। एक तो वे, जो अपने स्वरूप में ही मस्त रहते हैं, जिनकी दृष्टि में कभी द्वैत भासता ही नहीं। दूसरे वे, जिन्हें द्वैत तो भासता है, परन्तु जो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनका किसी से कोई प्रयोजन ही नहीं है। तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं कि हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बूझकर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगों से भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते है। गोपियों! मैं तो प्रेम करने-वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिये। मैं ऐसा केवल इसलिये करता हूँ कि उनकी चित्तवृति और भी मुझमें लगे, निरन्तर लगी ही रहे। जैसे निर्धन पुरुष को कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर खो जाय तो उसका हृदय खोये हुए धन की चिन्ता से भर जाता है, वैसे ही मैं भी मिल-मिलकर छिप-छिप जाता हूँ। गोपियों! इसमें सन्देह नहीं कि तुम लोगों ने मेरे लिये लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और अपने सगे-सम्बन्धियों को भी छोड़ दिया है। ऐसी स्थिति में तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाय, अपने सौन्दर्य और सुहाग की चिन्ता न करने लगे, मुझमे ही लगी रहे, इसलिये परोक्ष रूप से तुम लोगों से प्रेम करता हुआ ही मैं छिप गया था। इसलिये तुम लोग मेरे प्रेम में दोष मत निकालो। तुम सब मेरी प्यारी और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ। मेरी प्यारी गोपियों! तुमने मेरे लिये घर-गृहस्थी की उन बेड़ियों को तोड़ डाला है। मैं जन्म-जन्म के लिये तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभाव से, प्रेम से मुझे उऋण सकती हो। परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ। ॥जय जय श्री राधे॥ ॥ राणा जी खेड़ांवाली॥ #🕉️सनातन धर्म🚩 #🌸 जय श्री कृष्ण😇
*श्रीमद्वाल्मीकीय–रामायण* *पोस्ट–568* 🧿🧿🧿🧿🧿🧿🧿🧿🧿🧿🧿🧿 *(उत्तरकाण्ड–सर्ग-027)* 🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹 *आज की कथा में:–सेना सहित रावण का इन्द्रलोक पर आक्रमण, इन्द्र की भगवान् विष्णु से सहायता के लिये प्रार्थना, भविष्य में रावण वध की प्रतिज्ञा करके विष्णु का इन्द्र को लौटाना, देवताओं और राक्षसों का युद्ध तथा वसु के द्वारा सुमाली का वध* कैलास पर्वत को पार करके महातेजस्वी दशमुख रावण सेना और सवारियों के साथ इन्द्रलोक में जा पहुँचा। सब ओर से आती हुई राक्षस सेना का कोलाहल देवलोक में ऐसा जान पड़ता था, मानो महासागर के मथे जाने का शब्द प्रकट हो रहा हो। रावण का आगमन सुनकर इन्द्र अपने आसन से उठ गये और अपने पास आये हुए समस्त देवताओं से बोले। उन्होंने आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, साध्यों तथा मरुद्गणों से भी कहा। इन्द्र बोले–‘तुम सब लोग दुरात्मा रावण के साथ युद्ध करने के लिये तैयार हो जाओ।’ इन्द्र के ऐसा कहने पर युद्ध में उन्हीं के समान पराक्रम प्रकट करने वाले महाबली देवता कवच आदि धारण करके युद्ध के लिये उत्सुक हो गये। देवराज इन्द्र को रावण से भय हो गया था। अतः वे दुःखी हो भगवान् विष्णु के पास आये और इस प्रकार बोले–‘विष्णुदेव! मैं राक्षस रावण के लिये क्या करूँ ? अहो ! वह अत्यन्त बलशाली निशाचर मेरे साथ युद्ध करने के लिये आ रहा है। वह केवल ब्रह्माजी के वरदान के कारण प्रबल हो गया है; दूसरे किसी हेतु से नहीं। कमलयोनि ब्रह्माजी ने जो वर दे दिया है, उसे सत्य करना हम सब लोगों का काम है। अत: जैसे पहले आपके बल का आश्रय लेकर मैंने नमुचि, वृत्रासुर, बलि, नरक और शम्बर आदि असुरों को दग्ध कर डाला है, उसी प्रकार इस समय भी इस असुर का अन्त हो जाय, ऐसा कोई उपाय आप ही कीजिये। मधुसूदन! आप देवताओं के भी देवता एवं ईश्वर हैं। इस चराचर त्रिभुवन में आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं हैं, जो हम देवताओं को सहारा दे सके। आप ही हमारे परम आश्रय हैं। आप पद्मनाभ हैं–आप ही के नाभिकमल से जगत् की उत्पत्ति हुई है। आप ही सनातनदेव श्रीमान् नारायण हैं। आपने ही इन तीनों लोकों को स्थापित किया है और आपने ही मुझे देवराज इन्द्र बनाया है। भगवन्! आपने ही स्थावर-जङ्गम प्राणियों सहित इस समस्त त्रिलोकी की सृष्टि की है और प्रलयकाल में सम्पूर्ण भूत आपमें ही प्रवेश करते हैं। इसलिये देवदेव! आप ही मुझे कोई ऐसा अमोघ उपाय बताइये, जिससे मेरी विजय हो। क्या आप स्वयं चक्र और तलवार लेकर रावण से युद्ध करेंगे ? इन्द्र के ऐसा कहने पर भगवान् नारायणदेव बोले– भगवान् विष्णु ने कहा–‘देवराज! तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। मेरी बात सुनो। पहली बात तो यह है इस दुष्टात्मा रावण को सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी न तो मार सकते हैं और न परास्त ही कर सकते हैं; क्योंकि वरदान पाने के कारण यह इस समय दुर्जय हो गया है। अपने पुत्र के साथ आया हुआ यह उत्कट बलशाली राक्षस सब प्रकार से महान् पराक्रम प्रकट करेगा। यह बात मुझे अपनी स्वाभाविक ज्ञानदृष्टि से दिखायी दे रही है। सुरेश्वर! दूसरी बात जो मुझे कहनी है, इस प्रकार है–तुम जो मुझसे कह रहे थे कि ‘आप ही उसके साथ युद्ध कीजिये’ उसके उत्तर में निवेदन है कि मैं इस समय युद्धस्थल में राक्षस रावण का सामना करने के लिये नहीं जाऊँगा। मुझ विष्णु का यह स्वभाव है कि मैं संग्राम में शत्रु का वध किये बिना पीछे नहीं लौटता; परन्तु इस समय रावण वरदान से सुरक्षित है, इसलिये उसकी ओर से मेरी इस विजय-सम्बन्धिनी इच्छा की पूर्ति होनी कठिन है। परन्तु देवेन्द्र! शतक्रतो! मैं तुम्हारे समीप इस बात की प्रतिज्ञा करता हूँ कि समय आने पर मैं ही इस राक्षस की मृत्यु का कारण बनूँगा। मैं ही रावण को उसके अग्रगामी सैनिकों सहित माऊँगा और देवताओं को आनन्दित करूँगा; परन्तु यह तभी होगा जब मैं जान लूँगा कि इसकी मृत्यु का समय आ पहुँचा है। देवराज! ये सब बातें मैंने तुम्हें ठीक-ठीक बता दीं। महाबलशाली शचीवल्लभ ! इस समय तो तुम्हीं देवताओं सहित जाकर उस राक्षस के साथ निर्भय हो युद्ध करो।’ तदनन्तर रुद्र, आदित्य, वसु, मरुद्गुण और अश्विनीकुमार आदि देवता युद्ध के लिये तैयार होकर तुरन्त अमरावतीपुरी से बाहर निकले और राक्षसों का सामना करने के लिये आगे बढ़े। इसी बीच रात बीतते-बीतते सब ओर से युद्ध के लिये उद्यत हुई रावण की सेना का महान् कोलाहल सुनायी देने लगा। वे महापराक्रमी राक्षस सैनिक सबेरे जागने पर एक-दूसरे की ओर देखते हुए बड़े हर्ष और उत्साह के साथ युद्ध के लिये ही आगे बढ़ने लगे। तदनन्तर युद्ध के मुहाने पर राक्षसों की उस अनन्त एवं विशाल सेना को देखकर देवताओं की सेना में बड़ा क्षोभ हुआ। फिर तो देवताओं का दानवों और राक्षसों के साथ भयंकर युद्ध छिड़ गया। भयंकर कोलाहल होने लगा और दोनों ओर से नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की बौछार आरम्भ हो गयी। इसी समय रावण के मन्त्री शूरवीर राक्षस, जो बड़े भयंकर दिखायी देते थे, युद्ध के लिये आगे बढ़ आये। मारीच, प्रहस्त, महापार्श्व, महोदर, अकम्पन निकुम्भ, शुक, शारण, संह्राद, धूमकेतु, महादंष्ट्र, घटोदर, जम्बुमाली, महाह्राद, विरूपाक्ष, सुप्तन्न, यज्ञकोप, दुर्मुख, दूषण, खर, त्रिशिरा, करवीराक्ष, सूर्यशत्रु, महाकाय, अतिकाय, देवान्तक तथा नरान्तक इन सभी महापराक्रमी राक्षसों से घिरे हुए महाबली सुमाली ने, जो रावण का नाना था, देवताओं की सेना में प्रवेश किया। उसने कुपित हो नाना प्रकार के पैने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा समस्त देवताओं को उसी तरह मार भगाया, जैसे वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है। श्रीराम ! निशाचरों की मार खाकर देवताओं की वह सेना सिंह द्वारा खदेड़े गये मृगों की भाँति सम्पूर्ण दिशाओं में भाग चली। इसी समय वसुओं में से आठवें वसुने, जिनका नाम सावित्र है, समराङ्गण में प्रवेश किया। वे नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित एवं उत्साहित सैनिकों से घिरे हुए थे। उन्होंने शत्रुसेनाओं को संत्रस्त करते हुए रणभूमि में पदार्पण किया। इनके सिवा अदिति के दो महापराक्रमी पुत्र त्वष्टा और पूपाने अपनी सेना के साथ एक ही समय युद्धस्थल में प्रवेश किया, वे दोनों वीर निर्भय थे। फिर तो देवताओं का राक्षसों के साथ घोर युद्ध होने लगा। युद्ध से पीछे न हटने वाले राक्षसों की बढ़ती हुई कीर्ति देख-सुनकर देवता उनके प्रति बहुत कुपित थे। तत्पश्चात् समस्त राक्षस समरभूमि में खड़े हुए लाखों देवताओं को नाना प्रकार के घोर अस्त्र-शस्त्रों द्वारा मारने लगे। इसी तरह देवता भी महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न घोर राक्षसों को समराङ्गण में चमकीले अस्त्र-शस्त्रों से मार- मारकर यमलोक भेजने लगे। श्रीराम ! इसी बीच में सुमाली नामक राक्षस ने कुपित होकर नाना प्रकार के आयुधों द्वारा देवसेना पर आक्रमण किया। उसने अत्यन्त क्रोध से भरकर बादलों को छिन्न-भिन्न कर देने वाली वायु के समान अपने भाँति-भाँति के तीखे अस्त्र-शस्त्रों द्वारा समस्त देवसेना को तितरबितर कर दिया। उसके महान् बाणों और भयंकर शूलों एवं प्रासों की वर्षा से मारे जाते हुए सभी देवता युद्धक्षेत्र में संगठित होकर खड़े न रह सके। सुमाली द्वारा देवताओं के भगाये जाने पर आठवें वसु सावित्र को बड़ा क्रोध हुआ। वे अपनी रथ सेनाओं के साथ आकर उस प्रहार करने वाले निशाचर के सामने खड़े हो गये। महातेजस्वी सावित्र ने युद्धस्थल में अपने पराक्रम द्वारा सुमाली को आगे बढ़ने से रोक दिया। सुमाली और वसु दोनों में से कोई भी युद्ध से पीछे हटने वाला नहीं था; अत: उन दोनों में महान् एवं रोमाञ्चकारी युद्ध छिड़ गया। तदनन्तर महात्मा वसु ने अपने विशाल बाणों द्वारा सुमाली के सर्प जुते हुए रथ को क्षणभर में तोड़-फोड़कर गिरा दिया। युद्धस्थल में सैकड़ों बाणों से छिदे हुए सुमाली के रथ को नष्ट करके वसु ने उस निशाचर के वध के लिये कालदण्ड के समान एक भयंकर गदा हाथ में ली, जिसका अग्रभाग अग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था। उसे लेकर सावित्र ने सुमाली के मस्तक पर दे मारा। उसके ऊपर गिरती हुई वह गदा उल्का के समान चमक उठी, मानो इन्द्र के द्वारा छोड़ी गयी विशाल अशनि भारी गडगडाहट के साथ किसी पर्वत के शिखर पर गिर रही हो। उसकी चोट लगते ही समराङ्गण में सुमाली का काम तमाम हो गया। न उसकी हड्डी का पता लगा, न मस्तक का और न कहीं उसका मांस ही दिखायी दिया। वह सब कुछ उस गदा की आग से भस्म हो गया। युद्ध में सुमाली को मारा गया देख वे सब राक्षस एक-दूसरों को पुकारते हुए एक साथ चारों ओर भाग खड़े हुए। वसु के द्वारा खदेड़े जाने वाले वे राक्षस समरभूमि में खड़े न रह सके। इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदि काव्य के उत्तरकाण्ड में सत्ताईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२७॥ राणा जी खेड़ांवाली🚩 ॐश्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #🙏श्री राम भक्त हनुमान🚩 #🙏रामायण🕉 #🎶जय श्री राम🚩 #श्री हरि
*दुर्गा सप्तशती पाठ- नवाँ अध्याय हिन्दी में* *निशुम्भ वध* 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩 राजा ने कहा- हे ऋषिराज! आपने रक्तबीज के वध से संबंध रखने वाला वृतान्त मुझे सुनाया। अब मैं रक्तबीज के मरने के पश्चात क्रोध में भरे हुए शुम्भ व निशुम्भ ने जो कर्म किया, वह सुनना चाहता हूँ। महर्षि मेधा ने कहा-रक्तबीज के मारे जाने पर शुम्भ और निशुम्भ को बड़ा क्रोध आया और अपनी बहुत बड़ी सेना का इस प्रकार सर्वनाश होते देखकर निशुम्भ देवी पर आक्रमण करने के लिए दौड़ा, उसके साथ बहुत से बड़े-बड़े असुर देवी को मारने के वास्ते दौड़े और महापराक्रमी शुम्भ अपनी सेना सहित चण्डिका को मारने के लिए बढ़ा, फिर शुम्भ और निशुम्भ का देवी से घोर युद्ध होने लगा और वह दोनो असुर इस प्रकार देवी पर बाण फेंकने लगे जैसे मेघों से वर्षा हो रही हो, उन दोनो के चलाए हुए बाणों को देवी ने अपने बाणों से काट डाला और अपने शस्त्रों की वर्षा से उन दोनो दैत्यों को चोट पहुँचाई, निशुम्भ ने तीक्ष्ण तलवार और चमकती हुई ढाल लेकर देवी के सिंह पर आक्रमण किया, अपने वाहन को चोट पहुँची देखकर देवी ने अपने क्षुरप्र नामक बाण से निशुम्भ की तलवार व ढाल दोनो को ही काट डाला। तलवार और ढाल कट जाने पर निशुम्भ ने देवी पर शक्ति से प्रहार किया। देवी ने अपने चक्र से उसके दो टुकड़े कर दिए। फिर क्या था दैत्य मारे क्रोध के जल भुन गया और उसने देवी को मारने के लिए उसकी ओर शूल फेंका, किन्तु देवी ने अपने मुक्के से उसको चूर-चूर कर डाला, फिर उसने देवी पर गदा से प्रहार किया, देवी ने त्रिशूल से गदा को भस्म कर डाला, इसके पश्चात वह फरसा हाथ में लेकर देवी की ओर लपका। देवी ने अपने तीखे वाणों से उसे धरती पर सुला दिया। अपने पराक्रमी भाई निशुम्भ के इस प्रकार से मरने पर शुम्भ क्रोध में भरकर देवी को मारने के लिये दौड़ा। वह रथ में बैठा हुआ उत्तम आयुधों से सुशोभित अपनी आठ बड़ी-बड़ी भुजाओं से सारे आकाश को ढके हुए था। शुम्भ को आते देख कर देवी ने अपना शंख बजाया और धनुष की टंकोर का भी अत्यन्त दुस्सह शब्द किया, साथ ही अपने घण्टे के शब्द से जो कि सम्पूर्ण दैत्य सेना के तेज को नष्ट करने वाला था सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त कर दिया। इसके पश्चात देवी के सिंह ने भी अपनी दहाड़ से जिसे सुन बड़े-बड़े बलवानों ला मद चूर-चूर हो जाता था, आकाश, पृथ्वी और दसों दिशाओं को पूरित कर दिया, फिर आकाश में उछलकर काली ने अपने दाँतों तथा हाथों को पृथ्वी पर पटका, उसके ऎसा करने से ऎसा शब्द हुआ, जिससे कि उससे पहले के सारे शब्द शान्त हो गये, इसके पश्चात शिवदूती ने असुरों के लिए भय उत्पन्न करने वाला अट्टहास किया जिसे सुनकर दैत्य थर्रा उठे और शुम्भ को बड़ा क्रोध हुआ, फिर अम्बिका ने उसे अरे दुष्ट! खड़ा रह!!, खड़ा रह!!! कहा तो आकाश से सभी देवता ‘जय हो, जय हो’बोल उठे। शुम्भ ने वहाँ आकर ज्वालाओं से युक्त एक अत्यन्त भयंकर शक्ति छोड़ी जिसे आते देखकर देवी ने अपनी महोल्का नामक शक्ति से काट डाला। हे राजन्! फिर शुम्भ के सिंहनाद से तीनों लोक व्याप्त हो गये और उसकी प्रतिध्वनि से ऎसा घोर शब्द हुआ, जिसने इससे पहले के सब शब्दों को जीत लिया। शुम्भ के छोड़े बाणों को देवी ने और देवी के छोड़े बाणों को शुम्भ ने अपने बाणों से काट सैकड़ो और हजारों टुकड़ो में परिवर्तित कर दिया। इसके पश्चात जब चण्डीका ने क्रोध में भर शुम्भ को त्रिशूल से मारा तो वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, जब उसकी मूर्छा दुर हुई तो वह धनुष लेकर आया और अपने बाणों से उसने देवी काली तथा सिंह को घायल कर दिया, फिर उस राक्षस ने दस हजार भुजाएँ धारण करके चक्रादि आयुधों से देवी को आच्छादित कर दिया, तब भगवती दुर्गा ने कुपित होकर अपने बाणों से उन चक्रों तथा बाणों को काट डाला, यह देखकर निशुम्भ हाथ में गदा लेकर चण्डिका को मारने के लिए दौडा, उसके आते ही देवी ने तीक्ष्ण धार वाले ख्ड्ग से उसकी गदा को काट डाला। उसने फिर त्रिशूल हाथ में ले लिया, देवताओं को दुखी करने वाले निशुम्भ त्रिशूल हाथ में लिए हुए आता देखकर चण्डिका ने अपने शूल से उसकी छाती पर प्रहार किया और उसकी छाती को चीर डाला, शूल विदीर्ण हो जाने पर उसकी छाती में से एक उस जैसा ही महा पराक्रमी दैत्य ठहर जा! ठहर जा!! कहता हुआ निकला। उसको देखकर देवी ने बड़े जोर से ठहाका लगाया। अभी वह निकलने भी न पाया था किन उसका सिर अपनी तलवार से काट डाला। सिर के कटने के साथ ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। तदनन्तर सिंह दहाड़-दहाड़ कर असुरों का भक्षण करने लगा और काली शिवदूती भी राक्षसों का रक्त पीने लगी। कौमारी की शक्ति से कितने ही महादैत्य नष्ट हो गए। ब्रह्माजी के कमण्डल के जल से कितने ही असुर समाप्त हो गये। कई दैत्य माहेश्वरी के त्रिशूल से विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और बाराही के प्रहारों से छिन्न-भिन्न होकर धराशायी हो गये। वैष्णवी ने भी अपने चक्र से बड़े-बड़े महा पराक्रमियों का कचमूर निकालकर उन्हें यमलोक भेज दिया और ऎन्द्री से कितने ही महाबली राक्षस टुकड़े-2 हो गये। कई दैत्य मारे गए, कई भाग गए, कितने ही काली शिवदूती और सिंह ने भक्षण कर लिए। जय माता की राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #जय माता की
*मृत्यु,के बाद क्या होता है,श्रीमदभगवत गीता?????* ☘️☘️☘️☘️☘️☘️☘️☘️☘️☘️☘️☘️ भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का ज्ञान दे रहे हैं,,, अर्जुन पूछता है – हे त्रिलोकीनाथ! आप आवागमन अर्थात पुनर्जन्म के बारे में कह रहे हैं, इस सम्बन्ध में मेरा ज्ञान पूर्ण नहीं है। यदि आप पुनर्जन्म की व्याख्या करें तो कृपा होगी। कृष्ण बताते हैं – इस सृष्टि के प्राणियों को मृत्यु के पश्चात् अपने-अपने कर्मों के अनुसार पहले तो उन्हें परलोक में जाकर कुछ समय बिताना होता है जहाँ वो पिछले जन्मों में किये हुए पुण्यकर्मों अथवा पापकर्म का फल भोगते हैं। फिर जब उनके पुण्यों और पापों के अनुसार सुख दुःख को भोगने का हिसाब खत्म हो जाता है तब वो इस मृत्युलोक में फिर से जन्म लेते हैं। इस मृत्युलोक को कर्मलोक भी कहा जाता है। क्योंकि इसी लोक में प्राणी को वो कर्म करने का अधिकार है जिससे उसकी प्रारब्ध बनती है। अर्जुन पूछते हैं – हे केशव! हमारी धरती को मृत्युलोक क्यों कहा जाता है? कृष्ण बताते हैं – क्योंकि हे अर्जुन, केवल इसी धरती पर ही प्राणी जन्म और मृत्यु की पीड़ा सहते हैं। अर्जुन पूछता है – अर्थात दूसरे लोकों में प्राणी का जन्म और मृत्यु नहीं होती? कृष्ण बताते हैं – नहीं अर्जुन! उन लोकों में न प्राणी का जन्म होता है और न मृत्यु। क्योंकि मैंने तुम्हें पहले ही बताया था कि मृत्यु केवल शरीर की होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा तो न जन्म लेती है और न मरती है। अर्जुन फिर पूछते हैं – तुमने तो ये भी कहा था कि आत्मा को सुख-दुःख भी नहीं होते। परन्तु अब ये कह रहे हो कि मृत्यु के पश्चात आत्मा को सुख भोगने के लिए स्वर्ग आदि में अथवा दुःख भोगने के लिए नरक आदि में जाना पड़ता है। तुम्हारा मतलब ये है कि आत्मा को केवल पृथ्वी पर ही सुख दुःख नहीं होते, स्वर्ग अथवा नरक में आत्मा को सुख या दुःख भोगने पड़ते हैं। कृष्ण बताते हैं – नहीं अर्जुन! आत्मा को कहीं, किसी भी स्थान पर या किसी काल में भी सुख दुःख छू नहीं सकते। क्योंकि आत्मा तो मुझ अविनाशी परमेश्वर का ही प्रकाश रूप है। हे अर्जुन! मैं माया के आधीन नहीं, बल्कि माया मेरे आधीन है और सुख दुःख तो माया की रचना है। इसलिए जब माया मुझे अपने घेरे में नहीं ले सकती तो माया के रचे हुए सुख और दुःख मुझे कैसे छू सकते हैं। सुख दुःख तो केवल शरीर के भोग हैं, आत्मा के नहीं। अर्जुन कहता है – हे केशव! लगता है कि तुम मुझे शब्दों के मायाजाल में भ्रमा रहे हो। मान लिया कि सुख दुःख केवल शरीर के भोग हैं, आत्मा इनसे अलिप्त है। फिर जो शरीर उनको भोगता है उसकी तो मृत्यु हो जाती है। वो शरीर तो आगे नहीं जाता, फिर स्वर्ग अथवा नरक में सुख दुःख को भोगने कौन जाता है? अर्जुन पूछता है – जीव आत्मा? ये जीव आत्मा क्या है केशव! कृष्ण कहते हैं – हाँ पार्थ! जीव आत्मा। देखो, जब किसी की मृत्यु होती है तो असल में ये जो बाहर का अस्थूल शरीर है केवल यही मरता है। इस अस्थूल शरीर के अंदर जो सूक्ष्म शरीर है वो नहीं मरता। वो सूक्ष्म शरीर आत्मा के प्रकाश को अपने साथ लिए मृत्युलोक से निकलकर दूसरे लोकों को चला जाता है। उसी सूक्ष्म शरीर को जीवात्मा कहते हैं। अर्जुन पूछता है – इसका अर्थ है- जब आत्मा एक शरीर को छोड़कर जाती है तो साथ में जीवात्मा को भी ले जाती है? कृष्ण कहते हैं – नहीं अर्जुन! ये व्याख्या इतनी सरल नहीं है। देखो, जैसे समुद्र के अंदर जल की एक बून्द समुद्र से अलग नहीं है उसी महासागर का एक हिस्सा है वो बून्द अपने आप सागर से बाहर नहीं जाती, हाँ! कोई उस जल की बून्द को बर्तन में भरकर ले जाये तो वो समुद्र से अलग दिखाई देती है, इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर रूपी जीवात्मा उस आत्म ज्योति के टुकड़े को अपने अंदर रखकर अपने साथ ले जाता है। यही जीवात्मा की यात्रा है जो एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक योनि से दूसरी योनि में विचरती रहती है। इस शरीर में सुन अर्जुन एक सूक्ष्म शरीर समाये रे, ज्योति रूप वही सूक्ष्म शरीर तो जीवात्मा कहलाये रे। मृत्यु समय जब यह जीवात्मा तन को तज कर जाये रे, धन दौलत और सगे सम्बन्धी कोई संग ना आये रे। पाप पुण्य संस्कार वृत्तियाँ ऐसे संग ले जाए रे, जैसे फूल से उसकी खुशबु पवन उड़ा ले जाए रे। संग चले कर्मों का लेखा जैसे कर्म कमाए रे, अगले जन्म में पिछले जन्म का आप हिसाब चुकाए रे। हे अर्जुन! जीवात्मा जब एक शरीर को छोड़कर जाती है तो उसके साथ उसके पिछले शरीर की वृत्तियाँ, उसके संस्कार और उसके भले कर्मों का लेखा जोखा अर्थात उसकी प्रारब्ध सूक्ष्म रूप में साथ जाती है। अर्जुन पूछते हैं – हे मधुसूदन! मनुष्य शरीर त्यागने के बाद जीवात्मा कहाँ जाता है? कृष्ण कहते हैं – मानव शरीर त्यागने के बाद मनुष्य को अपने प्रारब्ध अनुसार अपने पापों और पुण्यों को भोगना पड़ता है। इसके लिए भोग योनियाँ बनी हैं जो दो प्रकार की हैं- उच्च योनियाँ और नीच योनियाँ। स्वर्ग नर्क क्या है, श्रीमद भागवत गीता?????? एक पुण्य वाला मनुष्य का जीवात्मा उच्च योनियों में स्वर्ग में रहकर अपने पुण्य भोगता है और पापी मनुष्य का जीवात्मा नीच योनियों में, नरक में रहकर अपने पापों को भोगता है। कभी ऐसा भी होता है कि कई प्राणी स्वर्ग नरक का सुख दुःख पृथ्वी लोक पर ही भोग लेते हैं। अर्जुन पूछता है- इसी लोक में? वो कैसे? कृष्ण कहते हैं – इसे तुम यूं समझों अर्जुन कि जैसे कोई सम्पन्न मनुष्य है, महल में रहता है, उसकी सेवा के लिए दास-दासियाँ हर समय खड़ी है, उसका एक इकलौता जवान बेटा है, जिसे वो संसार में सबसे अधिक प्रेम करता है और अपने आपको संसार का सबसे भाग्यशाली मनुष्य समझता है। परन्तु एक दिन उसका जवान बेटा किसी दुर्घटना में मारा जाता है। दुखों का पहाड़ उस पर टूट पड़ता है। संसार की हर वस्तु उसके पास होने के बावजूद भी वो दुखी ही रहता है और मरते दम तक अपने पुत्र की मृत्यु की पीड़ा से मुक्त नहीं होता। तो पुत्र के जवान होने तक उस मनुष्य ने जो सुख भोगे हैं वो स्वर्ग के सुखों की भांति थे और पुत्र की मृत्यु के बाद उसने जो दुःख भोगे हैं वो नरक के दुखों से बढ़कर थे जो मनुष्य को इसी तरह, इसी संसार में रहकर भी अपने पिछले जन्मों के सुख दुःख को भोगना पड़ता है। अर्जुन पूछता है – हे मधुसूदन! अब ये बताओ कि मनुष्य अपने पुण्यों को किन-किन योनियों में और कहाँ भोगता है? कृष्ण बताते हैं – पुण्यवान मनुष्य अपने पुण्यों के द्वारा किन्नर, गन्धर्व अथवा देवताओं की योनियाँ धारण करके स्वर्ग लोक में तब तक रहता है जब तक उसके पुण्य क्षीण नहीं हो जाते। अर्जुन पूछता है – अर्थात? कृष्ण कहते हैं – अर्थात ये कि प्राणी के हिसाब में जितने पुण्य कर्म होते हैं उतनी ही देर तक उसे स्वर्ग में रखा जाता है। जब पुण्यों के फल की अवधि समाप्त हो जाती है तो उसे फिर पृथ्वीलोक में वापिस आना पड़ता है और मृत्युलोक में पुनर्जन्म धारण करना पड़ता है। प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः। शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।। अर्थ :- वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करने वालों के लोकों को प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षों तक रहकर फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानों(धनवान) के घर में जन्म लेता है। अर्जुन पूछता है – परन्तु स्वर्ग लोक में मनुष्य के पुण्य क्यों समाप्त हो जाते हैं? वहाँ जब वो देव योनि में होता है तब वो अवश्य ही अच्छे कर्म करता होगा, उसे इन अच्छे कर्मों का पुण्य तो प्राप्त होता होगा? कृष्ण बताते हैं – नहीं अर्जुन! उच्च योनि में देवता बनकर प्राणी जो अच्छे कर्म करता है या नीच योनि में जाकर प्राणी जो क्रूर कर्म करता है, उन कर्मों का उसे कोई फल नहीं मिलता। अर्जुन पूछता है – क्यों? कृष्ण कहते हैं – क्योंकि वो सब भोग योनियाँ है। वहाँ प्राणी केवल अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगता है। इन योनियों में किये हुए कर्मों का पुण्य अथवा पाप उसे नहीं लगता। हे पार्थ! केवल मनुष्य की योनि में ही किये हुए कर्मों का पाप या पुण्य होता है क्योंकि यही एक कर्म योनि है। पाप पुण्य का लेखा जोखा कैसे होता है? अर्जुन पूछते हैं – इसका अर्थ ये हुआ यदि कोई पशु किसी की हत्या करे तो उसका पाप उसे नहीं लगेगा और यदि कोई मनुष्य किसी की अकारण हत्या करे तो पाप लगेगा? परन्तु ये अंतर क्यों? कृष्ण कहते हैं – इसलिए कि पृथ्वी लोक में समस्त प्राणियों में केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो विवेकशील है, वो अच्छे बुरे की पहचान रखता है। दूसरा कोई भी प्राणी ऐसा नहीं कर सकता। इसलिए यदि सांप किसी मनुष्य को अकारण भी डस ले और वो मर जाये तो साप को उसकी हत्या का पाप नहीं लगेगा। इसी कारण दूसरे जानवरों की हत्या करता है तो उसे उसका पाप नहीं लगता या बकरी का उदाहरण लो, बकरी किसी की हत्या नहीं करती, घास फूंस खाती है, इस कारण वो पुण्य की भागी नहीं बनती। पाप पुण्य का लेखा जोखा अर्थात प्रारब्ध केवल मनुष्य का बनता है। इसलिए जब मनुष्य अपने पाप और पुण्य भोग लेता है तो उसे फिर मनुष्य की योनि में भेज दिया जाता है। ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं- क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना- गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ अर्थ :- वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं। अर्जुन पूछता है – अर्थात देवों की योनियों में जो मनुष्य होते हैं वो अपने सुख भोगकर स्वर्ग से भी लौट आते हैं? कृष्ण कहते हैं – हाँ! और मनुष्य की योनि प्राप्त होने पर फिर कर्म करते हैं और इस तरह सदैव जन्म मृत्यु का कष्ट भोगते रहते हैं। अर्जुन पूछता है – हे मधुसूदन! क्या कोई ऐसा स्थान नहीं, जहाँ से लौटकर आना न पड़े और जन्म मरण का ये चक्कर समाप्त हो जाये? कृष्ण बताते हैं – ऐसा स्थान केवल परम धाम है अर्थात मेरा धाम। जहाँ पहुँचने के बाद किसी को लौटकर नहीं आना पड़ता, इसी को मोक्ष कहते हैं। ।। जय श्री राधे कृष्ण ।। ।। राणा जी खेड़ांवाली।। #🕉️सनातन धर्म🚩 #🌸 जय श्री कृष्ण😇
*एक गांव में एक महामूर्ख था।* 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿 वह बहुत परेशान था, क्योंकि वह कुछ भी कहता लोग हंस देते; लोग उसको महामूर्ख मान ही लिये थे। वह कभी ठीक भी बात कहता तो भी लोग हंस देते। वह सिकुड़ा—सिकुड़ा जीता था, बोलता तक नहीं था। न बोले तो लोग हंसते थे, बोले तो लोग हंसते थे। कुछ करे तो लोग हंसते थे, न करे तो लोग हंसते थे। उस गाव में एक फकीर आया। उस महामूर्ख ने रात उस फकीर के चरण पकड़े और कहा कि मुझे कुछ आशीर्वाद दो, मेरी जिंदगी क्या ऐसे ही बीत जायेगी सिकुड़े—सिकुड़े ? क्या मैं महामूर्ख की तरह ही मरूंगा, कोई उपाय नहीं है कि थोड़ी बुद्धि मुझमें आ जाये ? उस फकीर ने कहा उपाय है, यह ले सूत्र, तू निंदा शुरू कर दे। उसने कहा : निंदा से क्या होगा? फकीर ने कहा. सात दिन तू कर और फिर मेरे पास आना। उस महामूर्ख ने पूछा. करना क्या है निंदा में? उस फकीर ने कहा. कोई कुछ भी कहे, तू नकारात्मक वक्तव्य देना। जैसे कोई कहे कि देखो, कितना सुंदर सूरज निकल रहा है! तू कहना इसमें क्या सुंदर है? सिद्ध करो, सुंदर कहां है, क्या सुंदर है? रोज निकलता है, अरबों—खरबों सालों से निकल रहा है। आग का गोला है, सुंदर क्या है? कोई कहे कि देखो, जीसस के वचन कितने प्यारे हैं! तू तत्क्षण टूट पड़ना कि क्या है इसमें प्यारा, कौन—सी बात खूबी की है, कौन—सी बात नयी है? सदा से तो यही कहा गया है, सब पिटा—पिटाया है, सब बासा है, सब उधार है। तू नकार ही करना। कोई सुंदर स्त्री को देखकर कहे कितनी सुंदर स्त्री है! तू कहना इसमें है क्या? जरा नाक लंबी हो गयी तो हो क्या गया, कि रंग जरा सफेद हुआ तो हो क्या गया? सफेद तो कोढ़ी भी होते हैं। सुंदर कहां है, सिद्ध करो। तू हर—एक से प्रमाण मांगना और खयाल रखना यह कि हमेशा नकार में रहना; उनको विधेय में डाल देना, तू नकार में रहना। सात दिन बाद आ जाना। सात दिन बाद तो जब आया महामूर्ख तो अकेला नहीं आया, उसके कई शिष्य हो गये थे। वह आगे—आगे आ रहा था। फूल—मालाएं उसके गले में डली थीं। बैड—बाजे बज रहे थे। उसने फकीर से कहा कि तरकीब काम कर गयी! गांव में एकदम सन्नाटा खिंच गया है, जहां निकल जाता हूं लोग सिर नीचा कर लेते हैं। लोगों में खबर पहुंच गयी है कि मैं महामेधावी हूं। मेरे सामने कोई जीत नहीं सकता। अब आगे क्या करना है? उसने कहा : अब आगे तो कुछ करना ही मत, बस तू इसी पर रुके रहना। अगर तेरे को मेधा बचानी है, कभी विधेय में मत पड़ना। ईश्वर की कोई कहे तो तत्क्षण, तत्क्षण नास्तिकता प्रकट करना। जो भी कहा जाये, तू हमेशा नकारात्मक वक्तव्य देना, तुझे कोई न हरा सकेगा; क्योंकि नकारात्मक वक्तव्य को असिद्ध करना बहुत कठिन है। विधायक वक्तव्य को सिद्ध करना बहुत कठिन है। ईश्वर को स्वीकार करने के लिए बड़ी बुद्धिमत्ता चाहिए, बड़ी सूक्ष्म संवेदना चाहिए। हृदय का अत्यंत जागरूक रूप चाहिए। चैतन्य की निखरी हुई दशा चाहिए। भीतर थोड़ी रोशनी चाहिए। लेकिन ईश्वर को इंकार करने के लिए कुछ भी नहीं चाहिए। कोई अनिवार्यता नहीं है ईश्वर को इंकार करने के लिए। इसलिए लोग दुनिया में निंदा करते हैं। राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩
*आनन्दरामायणम्* *श्रीसीतापतये नमः* *श्रीवाल्मीकि महामुनि कृत शतकोटि रामचरितान्तर्गतं ('ज्योत्स्ना' हृया भाषा टीकयाऽटीकितम्)* *(सारकाण्डम्) नवम सर्गः* 🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱 *(राम का दण्डकवन में प्रवेश)...* 🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹 तुम बीस हजार राक्षसों को लेकर जाओ और उस बानर को पकड़ लाबो। 'तथास्तु' कहकर वह शीघ्र अशोक वन को गया ।॥ १४९ ॥ उसकी सेना को देखकर कपियों में कुञ्जर (हाथी) के समान वीर हनुमान ने बहुत जोर से गर्जन किया। तव राक्षसो ने वानरोत्तम हनुमान् को शस्त्रों से मारना आरम्भ कर दिया ।। १५० ।। हनुमान् भी रण में कूर पड़े और मच्छरों की तरह उन सेनापतियों तथा राक्षसों को चारों ओर से तोरण के द्वारा क्षणभर में पीस डाला ॥ १५१ ॥ उन सबको मारने के बाद मारुति ने वेग से एक ताड़‌ का वृक्ष उखाड़कर उससे जम्बुमाली को समाप्त कर दिया ।। १५२ ।। उन सबको मारे गये सुनकर रावण ने पाँच और सेनापतियों को भेजा। हनुमान ने तोरण ( मुदगर) से उन्हें भी मार डाला ।। १५३ ॥ बायु पुत्र हनुमान्‌ ने लाखों राक्षसों के साथ उन पाँच सेनापतियों को भी मार डाला, यह सुनकर रावण ने अपने अक्षय नामक पुत्र को भेजा ।। १५४ ॥ तब हनुमान्‌ ने उसको भी मुदगर से मार डाला। अब रावण ने अपने इन्द्रजित् सूत मेघनाद को भेजा ॥ १५५ ॥ वह एक करोड़ राक्षसों से वेष्टित हो तथा रथपर सवार होकर यहाँ आया। यह अपने दुर्धर्य शस्त्रास्त्रों से हनुमान् के साथ युद्ध करने लगा ॥१५६॥ हनुमान्‌ ने सेना को रोकने के लिए अपनी पूछ का ही गढ़ बनाया और तोरण से उन सबको क्षगभर में पीस डाला ॥ १५७ ॥ बाद में एक वृक्ष उखाड़कर उससे मेघनाद को मारा। जिससे घायल होकर वह एक गुफा में जा घुसा ॥ १५८ ॥ उस समय ब्रह्मा ने हनुमानु‌ से प्रार्थना की कि तुम मेरे ब्रह्मास्त्र (ब्रह्मपाश) का मान रक्खो और उसमें बँधकर लंका में रावण के पास जाओ ।॥ १५९ ॥ उन्होंने 'तथास्तु' कहकर अङ्गीकार कर लिया। तब ब्रह्मा मेघनाद के पास गये और कहा- हे मेघनाद तुम्हारा पराक्रम आज कहाँ चला गया ? ॥ १६० ॥ अब मेरे पाश से उन वानर को बाँधकर अपने पिता के पास ले जाओ। ब्रह्मा के बचन को सुनकर मेघनाध फिर वहाँ गया और हनुमान्‌ को ब्रह्मपाश से बाँधकर रावण के पास ले आया। तब रावण के कथनानुसार प्रहस्त उनसे पूछने लगा-॥ १६१ ॥ १६२ ।। बतला तू कौन है, कहाँ से आया है और तुझे किसने भेजा है? तब विस्तार से राम का वृत्तान्त सुनाकर हनुमान् रावण को समझाने लगे-॥ १६३ ॥ ओ रावण ! मूर्खता से प्राप्त शत्रुभाव को तू हृदय से निकाल दे और शरणागतों के प्रिय राम का भजन कर। यदि सीता को आगे करके पुत्र तथा बान्धवों के साथ जाकर राम को नमस्कार करेगा तो तू निर्भय हो जायगा ।। १६४ ॥ क्रमशः... जय सिया राम🙏 राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #🎶जय श्री राम🚩 #🙏श्री राम भक्त हनुमान🚩 #🙏रामायण🕉