*🌹🌹🌹दर्दे-दिल🌹🌹🌹* मैं 65 साल की हूँ, नई दिल्ली में एक सरकारी एजेंसी में आधी से ज्यादा जिंदगी काम करने के बाद रिटायर हुई हूँ। मेरी पेंशन हर महीने आराम से रहने के लिए काफी है, मेरे बैंक में लगभग 1 करोड़ रुपए और रोहिणी में मेन रोड पर एक घर है, बाहर के लोग कहते हैं, वो बुढ़ापे में भी खुश है।” लेकिन जिंदगी वैसी नहीं है जैसी दिखती है, मेरे तीन बच्चे रवि, अर्जुन, और प्रिया उनमें से कोई भी मेरी तरफ देखता तक नहीं, कोई खोज खबर नहीं, कोई फोन नहीं। मेरे बारे में पूछने के लिए एक टेक्स्ट मैसेज सोने जितना मुश्किल था, बड़े घर में खाना मैं खुद ही बनाती थी, जिसमें कुछ हफ़्ते ऐसे भी थे, जब मैं बिस्तर पर बीमार रहती थी, पड़ोसियों को पता था लेकिन मेरे बच्चों को नहीं। उन अकेले दिनों में, केवल एक ही इंसान मिलने आया, मेरे लिए गरम दलिया लाया, मेरे लिए पानी डाला, वो थे मिस्टर शर्मा, मेरे विधुर पड़ोसी, मुझसे 10 साल छोटे और वो बड़े ही दयालु थे, धीरे-धीरे बोलते और अपना सोचकर ध्यान भी रखते थे। मुझे बहुत अच्छा लगा क्योंकि मैं कमजोर थी और मन में अनजाने ही भावनाएं जाग गई। मिस्टर शर्मा की मीठी बातों ने मुझे उन पर भरोसा करने पर मजबूर कर दिया और मुझे यकीन दिलाया केवल मुश्किल में ही हम लोगों के दिलों को जान सकते हैं और मेरे अपने बच्चे बाहर वालों जितने अच्छे नहीं हैं। अपनी उलझन में, मैंने अपनी सारी संपत्ति मिस्टर शर्मा के नाम करने की वसीयत भी बना ली, ये उस ईमानदारी के जवाब में था जो मुझे लगा कि उनके मन में मेरे लिए कुछ है, यह खबर मेरे बच्चों तक पहुंच गई। एक दोपहर, वे तीनों लिविंग रूम के बीच में खड़े थे, उनके चेहरे गुस्से से भरे हुए थे। रवि चिल्लाया, तुम अपनी सारी संपत्ति बाहर वालों को देने की हिम्मत कैसे करोगी? तुम हमारे बारे में क्या सोचती हो? मेरा गला भर आया और मैं फूट-फूट कर रोने लगी क्या तुमने कभी मेरी परवाह की है ? जब मैं बीमार थी तो मेरे लिए कौन था ? मेरे लिए दलिया कौन लाया ? मुझे बैठने में किसने मदद की ? बाहर वाले मेरे अपने खून से बेहतर हैं…। वे चुप थे, लेकिन उनकी आँखों में अभी भी गुस्सा था। एक दिन सच सामने आ गया, एक हफ्ते बाद, पूरा मोहल्ला हिल गया, एक पड़ोसी दौड़कर आया और फुसफुसाया सुना है, मिस्टर शर्मा को पुलिस ले गई है, बहुत बड़ी ठगी हुई है, मोहल्ले में, कई बुजुर्गो की संपत्ति के पेपर लेकर बैठा था। मेरे हाथ पाव सुन्न हो गए, दिल जैसे बैठ गया, न… नहीं… वो ऐसा नहीं कर सकते, मैं बमुश्किल बोल पाई कि वो तो… मेरे लिए दलिया पड़ोसी ने करुणा भरी नजरों से मेरी तरफ देख कर कहा दीदी… वो सब उसका तरीका है किसी ने बताया कि पिछले पांच साल में उसने चार मोहल्लों में बहुत से ऐसे ही बुजुर्गों से वसीयतें बदलवाई हैं। पुलिस ने रिकवरी भी की है… फाइलें, कागज… सब कुछ मिल गया। मेरी सांस रुक-रुक कर चल रही थी, दुनिया घूमने लगी और मेरे कानों में केवल एक ही आवाज गूंजती रही मुश्किल घड़ी में ही हम लोगों के दिल जान सकते हैं और अचानक वो मीठी, मुलायम आवाजें अब जहरीली लगने लगी थी। घर में खामोशी, उस शाम मेरे घर की सभी लाइटें जल रही थीं, लेकिन कमरा अंधेरे जैसा लग रहा था। मैं सोफे पर बैठी थी और सारे कागज मेरे सामने फैले हुए मेरी वसीयत, बैंक के पेपर, प्रॉपर्टी के दस्तावेज… सब पुलिस ने मुझे वापस कर दिए थे, लेकिन जो खो गया था, वो इन कागज़ों में नहीं लिखा था। वो अहसास जो मैंने अपनी तन्हाई के बदले में अपनी समझ बेच दी थी, बहुत भारी था, तभी दरवाजे पर खटखट हुई। रवि, अर्जुन और प्रिया तीनों अंदर आए तो पहली बार तीनों के चेहरे पर गुस्सा नहीं था, बस चिंता… या शायद शर्म। रवि ने धीरे से कहा, माँ… आपको चोट लगी है ? मैंने सिर हिला दिया, नहीं बेटा… चोट मुझे उस दिन लगी थी जब तुम तीनों ने मुझे छोड़ना सीख लिया था। तीनों चुप थे अर्जुन की आँखें नीचे झुक गई और प्रिया ने धीमी आवाज़ में कहा, हमने सोचा था… आप ठीक होगी… आपके पास पैसे हैं, घर है… आप अकेली नहीं होंगी… मैं हँस पड़ी पर वो हँसी नहीं, एक टूटी हुई आवाज थी, जो इंसान तब निकालता है जब दुख गले से निकल नहीं पाता। अकेलापन पैसे से नहीं जाता, प्रिया… जब किसी के ‘कैसी हो माँ ?’ कह देने भर से ज़िंदगी बदल जाती है। तीनों के चेहरे पर अपराध-बोध पिघलने लगा। टूटा हुआ दिल और उसका सच, मैंने अपना हाथ दिल पर रखा। जिस दिन मुझे तेज़ बुखार था… मैं खड़ी भी नहीं हो पा रही थी… तब तुममें से किसने फोन किया ? कौन आया ? कौन मेरे पास बैठा ? कोई जवाब नहीं। मैंने धीरे से कहा, जब बच्चे माता-पिता को भूल जाते हैं… तब माता-पिता भी किसी और पर भरोसा करना सीख जाते हैं और मैं… गलत इंसान पर भरोसा कर बैठी। रवि की आँखें भर आई ऊअर्जुन ने आगे बढ़कर मेरा हाथ पकड़ लिया। माँ… अब से हम आपको अकेला नहीं छोड़ेंगे ये वादा करते हैं। मैंने हाथ छुड़ा लिया, मगर नरमी से। वादा ? वो भी तब जब सब कुछ लगभग खो ही चुका था ? मैंने खिड़की के बाहर देखा। अगर शर्मा की असलियत सामने न आती… तो क्या तुम लोग आते ? तीनों के पास कोई जवाब नहीं था और यही जवाब मेरे घाव को और गहरा कर गया। लोगों को लगा माँ के बच्चे सुधर गए, अगले कुछ दिनों में मोहल्ले वाले कहने लगे, अच्छा हुआ बच्चों को अपनी गलती का अहसास हुआ, अब तो रोज़ आते हैं, दीदी, अच्छा है, माता-पिता और बच्चे चाहे जितना भी लड़ लें… आखिर खून का रिश्ता है।” मैं बस मुस्कुरा देती थी क्योंकि मैं जानती थी, उनके आने की वजह प्यार नहीं, एक डर था, वो डर भी यह था कि कहीं मैं फिर किसी बाहर वाले पर भरोसा ना करने लग जाऊं, यही सबसे बड़ा और कड़वा सच था। एक शाम मैंने तीनों को बुलाया और टेबल पर एक कागज रखा, जो नई वसीयत थी। रवि घबरा कर बोला माँ, क्या है ये? अब किसे… मैंने मुस्कुराकर कहा, तुम तीनों को नहीं दे रही हुं। सबकी नजरें नीचे हो गई। प्रिया फुसफुसाई, अब… किसे…? मैंने कहा, किसी इंसान को नहीं। उन्होंने एक-दूसरे को देखा, हैरानी से। मैंने गहरी सांस ली और कहा मैंने अपनी संपत्ति एक ट्रस्ट के नाम कर दी है और इससे केवल उन बुजुर्गों की मदद होगी, जिसने मेरे दिल की तरह किसी भी इंसान ने नहीं तोड़ा होगा। उनके चेहरे ठंडे पड़ गए। अर्जुन ने धीमे से पूछा, तो हमारा… क्या है? मैंने कहा, तुम तीनों को मैं अपने दिल से प्यार करती हूं, लेकिन संपत्ति वो प्यार से नहीं मिलती, वो तो जिम्मेदारी से मिलती है। वो तीनों चुप थे और उनकी खामोशी में पश्चाताप भी था और हकीकत भी। आखिरी दृश्य रात को मैं अपने कमरे में अकेली बैठी थी लेकिन इस बार अकेलापन बोझ नहीं था, मैंने अपने लिए पानी भरा, चश्मा ठीक किया, अब दलिया बनाने की जरूरत नहीं थी क्योंकि अब मेरे पास मेरी हिम्मत वापस आ गई थी और मैंने अपने आप से कहा, मैं 65 की जरुर हूँ, लेकिन कमजोर नहीं हूँ। खिड़की से बाहर मोहल्ले की रोशनी चमक रही थी, हवा में ठंड थी, पर दिल में अजीब-सी गर्माहट। मैंने आखिरी बार मुस्कुराकर सोचा, अब न शर्मा की जरूरत है और ना ही बच्चों की मेहरबानी… अब मैं अपनी जरूरत मैं स्वयं ही हूं और कुछ देर बाद मुझे अपने ही आंसू गर्म महसूस हुए, लेकिन ये आंसू दर्द के नहीं ये आंसू मेरी आज़ादी के आंसू थे। *विचार और शेयर करें* 🙏🌹🌹🙏
PRADEEP AGRAWAL